समास – परिभाषा, भेद और उदाहरण- Samas In Hindi

Samas In Hindi

समास(Compound) की परिभाषा, भेद और उदाहरण

दो या दो से अधिक स्वतन्त्र एवं सार्थक पदों के संक्षिप्तीकृत रूप को ‘समास’ कहते हैं। जैसे-शक्ति के अनुसार = यथाशक्ति, राजा का पुत्र = राजपुत्र, चार आनों का समूह = चवन्नी, पंक में जन्म होता है जिसका = पंकज, नीली गाय = नीलगाय आदि।

यहाँ यथाशक्ति, राजपुत्र, चवन्नी, पंकज तथा नीलगाय सामाजिक पद या समस्त पद कहलायेंगे तथा इनका समास का विग्रह किया हुआ रूप है-शक्ति के अनुसार, राजा का पुत्र, चार आनों का समूह, पंक में जन्म होता है जिसका तथा नीली गाय।

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समास के भेद

समास के मुख्य चार भेद माने गए हैं-

  1. अव्ययीभाव,
  2. तत्पुरुष,
  3. बहुव्रीहि,
  4. द्वन्द्व।

इनके अतिरिक्त कर्मधारय एवं द्विगु भी समास के भेद हैं लेकिन वास्तव में कर्मधारय एवं द्विगु को तत्पुरुष का ही भेद माना जाता है।

तत्पुरुष समास के मुख्य दो भेद होते हैं-

  1. व्यधिकरण तत्पुरुष, तथा
  2. समानाधिकरण तत्पुरुष।

इनमें व्यधिकरण तत्पुरुष ही तत्पुरुष समास है जिसमें समस्त पद समस्त पद के विग्रह करने पर प्रथम खण्ड एवं द्वितीय खण्ड में भिन्न-भिन्न विभक्तियाँ लगाई जाती हैं। जैसे

  • राजा का कुमार = राजकुमार।

यहाँ प्रथम पद में सम्बन्ध कारक है तथा षष्ठी विभक्ति है तथा दूसरे पद में कर्ता कारक की प्रथमा विभक्ति है।

समानाधिकरण तत्पुरुष समास में समस्त पद के विग्रह करने पर दोनों पदों में कर्ता कारक, प्रथमा विभक्ति ही रहती है, जैसे-रक्तकमल, पीतकमल, नीलकमल आदि। इसे कर्मधारय समास कहते हैं।

व्यधिकरण तत्पुरुष (तत्पुरुष) समास के छः भाग होते हैं-

  1. कर्म तत्पुरुष,
  2. करण तत्पुरुष,
  3. सम्प्रदान तत्पुरुष,.
  4. अपादान तत्पुरुष,
  5. सम्बन्ध तत्पुरुष,
  6. अधिकरण तत्पुरुष।

कक्षा-10 के पाठ्यक्रम में द्वन्द्व, द्विगु, कर्मधारय एवं बहुव्रीहि समास निर्धारित हैं, अतः इनका विस्तृत विवरण नीचे दिया जा रहा है।

कर्मधारय समास

समानाधिकरण तत्पुरुष समास को ही कर्मधारय समास कहा जाता है। इस समास में ‘विशेषण’ तथा ‘विशेष्य’ अथवा ‘उपमान’ एवं ‘उपमेय’ का संक्षिप्तीकृत रूप हो और विग्रह करने पर दोनों ही पदों में कर्ता कारक प्रथमा विभक्ति रहती है, उसे ‘कर्मधारय समास कहते हैं। जैसे-अन्धकूप = अन्धा कूप।

(अ) विशेषण-विशेष्य-इसमें पूर्वपद विशेषण तथा उत्तरपद विशेष्य होता है, यथा-
Samas(Compound)(समास) 1
Samas(Compound)(समास) 2
(ब)

(i) उपमेय-उपमान-इसमें पूर्वपद उपमेय होता है तथा उत्तरपद उपमान होता है। जैसे-
Samas(Compound)(समास) 3
(ii) उपमान-उपमेय-इसमें पूर्वपद उपमान तथा उत्तरपद उपमेय को बताया जाता है। जैसे-
Samas(Compound)(समास) 4
Samas(Compound)(समास) 5

द्वन्द्व समास

द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों की प्रधानता होती है। इन दोनों पदों के बीच में ‘और’ शब्द का लोप होता है। जैसे-
Samas(Compound)(समास) 6
Samas(Compound)(समास) 7
Samas(Compound)(समास) 8
Samas(Compound)(समास) 9

द्विगु समास

जिस समास का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण होता है तथा वह समूह का बोध कराता है, उसे समास कहते हैं। इसे तत्पुरुष समास का ही उपभेद माना जाता है।
Samas(Compound)(समास) 10
Samas(Compound)(समास) 11
Samas(Compound)(समास) 12

बहुव्रीहि समास

जिस समास में न पूर्वपद प्रधान होता है न उत्तरपद बल्कि अन्य पद प्रधान होता है, उसे ‘बहुव्रीहि’ समास कहते हैं। जैसे-
Samas(Compound)(समास) 13
Samas(Compound)(समास) 14

रस – परिभाषा, भेद और उदाहरण – हिन्दी व्याकरण, Ras in Hindi

Ras in Hindi

Ras (रस)- परिभाषा, भेद और उदाहरण

रस : शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ संस्कृत में ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘रसस्यते असो इति रसाः’ के रूप में की गई है; अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है; परन्तु साहित्य में काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं।

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सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रस के स्वरूप को स्पष्ट किया था। रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है–

“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से उत्पन्न होनेवाला आनन्द ही ‘रस’ है।

काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार रस ‘काव्य की आत्मा ‘ है।

भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा-

रस उत्पत्ति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। उन्होंने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रास रस के आठप्रकारों का वर्णन किया है। रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि कहते हैं कि सब नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है। रस का केंद्र रंगमंच है। भाव रस नहीं, उसका आधार है किंतु भरत ने स्थायी भाव को ही रस माना है।

रस के प्रकार, भेद

रस

प्रश्न–ज्ञान : परीक्षा में रस. अलंकार तथा छन्द में प्रत्येक से सम्बन्धित या तो एक–एक अंक के दो बहुविकल्पीय प्रश्न अथवा लक्षण एवं उदाहरण से सम्बन्धित दो–दो अंक का एक–एक लघूत्तरीय प्रश्न पूछा जाता है। रस, अलंकार व छन्दों के लिए पाठ्यक्रम में क्रमशः 2 + 2 + 2 = 6 अंक निर्धारित हैं।

प्रश्न–रस क्या है? उसके अवयवों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
रस की परिभाषा देते हुए उसके विभिन्न अंगों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर–
‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ संस्कृत में ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘रसस्यते असो इति रसाः’ के रूप में की गई है; अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है; परन्तु साहित्य में काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं।

सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रस के स्वरूप को स्पष्ट किया था। रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है–

“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से उत्पन्न होनेवाला आनन्द ही ‘रस’ है।

काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार रस ‘काव्य की आत्मा ‘ है।

रस के अंग (अवयव)

रस के प्रमुख अंग निम्नलिखित हैं

  1. स्थायी भाव,
  2. विभाव,
  3. अनुभाव,
  4. संचारी अथवा व्यभिचारी भाव।

रस के इन विभिन्न अंगों का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है

1. रस का स्थायी भाव
अर्थ–स्थायी भाव प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के हृदय में हमेशा विद्यमान रहते हैं। यद्यपि वे सुप्त अवस्था में रहते हैं, तथापि उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर ये रस के रूप में परिणत हो जाते हैं।

स्थायी भाव एवं उनसे सम्बन्धित रस–एक स्थायी भाव का सम्बन्ध एक रस से होता है। इनकी संख्या नौ है, किन्तु कुछ आचार्यों ने इनकी संख्या ग्यारह निर्धारित की है। ये ग्यारह स्थायी भाव और इनसे सम्बन्धित रसों के नाम इस प्रकार हैं

स्थायी भाव–रस

  1. रति–शृंगार
  2. हास–हास्य
  3. शोक–करुण
  4. क्रोध–रौद्र
  5. उत्साह–वीर
  6. भय–भयानक
  7. आश्चर्य–अद्भुत
  8. जुगुप्सा, ग्लानि–बीभत्स
  9. निर्वेद–शान्त
  10. वत्सलता–वात्सल्य
  11. देवविषयक रति–भक्ति।

इनमें अन्तिम दो स्थायी भावों (वत्सलता तथा देवविषयक रति) को श्रृंगार के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। प्रत्येक स्थायी भाव का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है

  1. रति–स्त्री–पुरुष की एक–दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम नामक चित्तवृत्ति को ‘रति’ स्थायी भाव कहते
  2. हास–रूप, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने से चित्त का विकसित होना ‘हास’ कहलाता है।
  3. शोक–प्रिय वस्तु (इष्टजन, वैभव आदि) के नाश इत्यादि के कारण उत्पन्न होनेवाली चित्त की व्याकुलता को ‘शोक’ कहते हैं।
  4. क्रोध–असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान आदि से उत्पन्न मनोविकार को ‘क्रोध’ कहते हैं।
  5. उत्साह–मन की वह उल्लासपूर्ण वृत्ति, जिसके द्वारा मनुष्य तेजी के साथ किसी कार्य को करने में लग जाता है, ‘उत्साह’ कहलाती है। इसकी अभिव्यक्ति शक्ति, शौर्य एवं धैर्य के प्रदर्शन में होती है।
  6. भय–हिंसक जन्तुओं के दर्शन, अपराध, भयंकर शब्द, विकृत चेष्टा और रौद्र आकृति द्वारा उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘भय’ स्थायी भाव के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  7. आश्चर्य–अलौकिक वस्तु को देखने, सुनने या स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार ‘आश्चर्य’ कहलाता है।
  8. जुगुप्सा–किसी अरुचिकर या मन के प्रतिकूल वस्तु को देखने अथवा उसकी कल्पना करने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह ‘जुगुप्सा’ कहलाता है।
  9. निर्वेद–सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य की उत्पत्ति ‘निर्वेद’ कहलाती है।
  10. वत्सलता–माता–पिता का सन्तान के प्रति अथवा भाई–बहन का परस्पर सात्त्विक प्रेम ही ‘वत्सलता’ कहलाता है।
  11. देव–विषयक रति–ईश्वर में परम अनुरक्ति ही ‘देव–विषयक रति’ कहलाती है।

रस–निष्पत्ति में स्थायी भाव का महत्त्व–स्थायी भाव ही परिपक्व होकर रस–दशा को प्राप्त होते हैं; इसलिए रस–निष्पत्ति में स्थायी भाव का सबसे अधिक महत्त्व है। अन्य सभी भाव और कार्य स्थायी भाव की पुष्टि के लिए ही होते हैं।

2. रस का विभाव
अर्थ–जो कारण (व्यक्ति, पदार्थ आदि) दूसरे व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते हैं, उन्हें ‘विभाव’ कहते हैं।

विभाव के भेद–’विभाव’ आश्रय के हृदय में भावों को जाग्रत करते हैं और उन्हें उद्दीप्त भी करते हैं। इस आधार पर विभाव के निम्नलिखित दो भेद हैं

  1. आलम्बन विभाव–जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण कोई भाव जाग्रत होता है, उस व्यक्ति अथवा वस्तु को उस भाव का ‘आलम्बन विभाव’ कहते हैं।
  2. उद्दीपन विभाव–स्थायी भावों को उद्दीप्त तथा तीव्र करनेवाला कारण ‘उद्दीपन विभाव’ कहलाता है। आलम्बन की चेष्टा तथा देश–काल आदि को ‘उद्दीपन विभाव’ माना जाता है।

रस–निष्पत्ति में विभाव का महत्त्व–हमारे मन में रहनेवाले स्थायी भावों को जाग्रत करने तथा उद्दीप्त करने का कार्य विभाव द्वारा होता है। जाग्रत तथा उद्दीप्त स्थायी भाव ही रस का रूप प्राप्त करते हैं। इस प्रकार रस–निष्पत्ति में विभाव का अत्यधिक महत्त्व है।

3. रस का अनुभाव

अर्थ–आश्रय की चेष्टाओं अथवा रस की उत्पत्ति को पुष्ट करनेवाले वे भाव, जो विभाव के बाद उत्पन्न होते हैं, ‘अनुभाव’ कहलाते हैं। भावों को सूचना देने के कारण ये भावों के ‘अनु’ अर्थात् पश्चात्वर्ती माने जाते हैं।

अनुभाव के भेद–अनुभावों के मुख्य रूप से निम्नलिखित चार भेद किए गए हैं

  1. कायिक अनुभाव–प्रायः शरीर की कृत्रिम चेष्टा को ‘कायिक अनुभाव’ कहा जाता है।
  2. मानसिक अनुभाव–मन में हर्ष–विषाद आदि के उद्वेलन को ‘मानसिक अनुभाव’ कहते हैं।
  3. आहार्य अनुभाव–मन के भावों के अनुसार अलग–अलग प्रकार की कृत्रिम वेश–रचना करने को ‘आहार्य अनुभाव’ कहते हैं।
  4. सात्त्विक अनुभाव हेमचन्द्र के अनुसार ‘सत्त्व’ का अर्थ है ‘प्राण’। स्थायी भाव ही प्राण तक पहुँचकर ‘सात्त्विक अनुभाव का रूप धारण कर लेते हैं।

रस–निष्पत्ति में अनुभावों का महत्त्व–स्थायी भाव जाग्रत और उद्दीप्त होकर रस–दशा को प्राप्त होते हैं। अनुभावों के द्वारा इस बात का ज्ञान होता है कि आश्रय के हृदय में रस की निष्पत्ति हो रही है अथवा नहीं। इसके साथ ही अनुभावों का चित्रण काव्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है।

4. रस का संचारी अथवा व्यभिचारी भाव

अर्थ–जो भाव, स्थायी भावों को अधिक पुष्ट करते हैं, उन सहयोगी भावों को ‘संचारी भाव’ कहा जाता है। भरतमुनि ने संचारी भावों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि ये वे भाव हैं, जो रसों में अनेक प्रकार से विचरण करते हैं तथा रसों को पुष्ट कर आस्वादन के योग्य बनाते हैं। जिस प्रकार समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार स्थायी भाव में संचारी भाव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।

संचारी भावों के भेद आचार्यों ने संचारी भावों की संख्या 33 निश्चित की है, जिनके नाम इस प्रकार हैं

  • निर्वेद
  • आवेग
  • दैन्य
  • श्रम
  • मद
  • जड़ता
  • उग्रता
  • मोह
  • विबोध
  • स्वप्न
  • अपस्मार
  • गर्व
  • मरण
  • आलस्य
  • अमर्ष
  • निद्रा
  • अवहित्था
  • उत्सुकता
  • उन्माद
  • शंका
  • स्मृति
  • मति
  • व्याधि
  • सन्त्रास
  • लज्जा
  • हर्ष
  • असूया
  • विषाद
  • धृति
  • चपलता
  • ग्लानि
  • चिन्ता
  • वितर्क।

रस–निष्पत्ति में संचारी भावों का महत्त्व–संचारी भाव स्थायी भाव को पुष्ट करते हैं। वे स्थायी भावों को इस योग्य बनाते हैं कि उनका आस्वादन किया जा सके। यद्यपि वे स्थायी भाव को पुष्ट कर स्वयं समाप्त हो जाते हैं, तथापि ये स्थायी भाव को गति एवं व्यापकता प्रदान करते हैं।

Paryayvachi Shabd (Synonyms Words)(पर्यायवाची शब्द)

पर्यायवाची शब्द (Synonyms Words)की परिभाषा

परिभाषा-जो शब्द अर्थ की दृष्टि से समान होते हैं, पर्यायवाची शब्द  Paryayvachi Shabd कहलाते हैं।
जैसे–
दूध के पर्यायवाची हैं-दुग्ध, क्षीर, पय, गोरस।

इनका प्रयोग औचित्य पर निर्भर करता है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है; यथा-‘जंगल में हय दौड़ रहे थे।’

इस वाक्य में ‘हय’ शब्द अश्व, घोड़े आदि का पर्यायवाची है, परन्तु यहाँ इसका औचित्य सही नहीं है। इसका सही प्रयोग इस प्रकार है
‘जंगल में घोड़े दौड़ रहे थे।’ इस प्रकार अर्थ की समानता होते हुए भी पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग एक-दूसरे की जगह नहीं हो सकता।

प्रमुख पर्यायवाची शब्द इस प्रकार हैं-

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(अ)

  • अतिथि – अभ्यागत, मेहमान, पाहुना, आगन्तुक।
  • अन्धकार – तिमिर, अँधेरा, तम।
  • अमृत – सुधा, अमी, पीयूष, सोम।
  • असुर – दानव, दनुज, दैत्य, राक्षस, निशाचर, मनुजाद, यातुधान।
  • आँख – नयन, लोचन, चक्षु, अक्षि, दृग, नेत्र।
  • अपराधी- गुनहगार, कसूरवार, मुलजिम।
  • अपवित्र- अशुद्ध, नापाक, अस्वच्छ, दूषित।
  • अफवाह- गप्प, किंवदंती, जनश्रुति, जनप्रवाद।
  • अभद्र- असभ्य, अविनीत, अकुलीन, अशिष्ट।
  • अभिनंदन- स्वागत, सत्कार, आवभगत, अभिवादन।
  • अमन- शांति, सुकून, सुख-चैन, अमन-चैन।
  • अमर- चिरंजीवी, अनश्वर, अजर-अमर।
  • अमीर- धनी, मालदार, रईस, दौलतमंद, धनवान।
  • अकिंचन- गरीब, निर्धन, दीनहीन, दरिद्र।
  • अकृतज्ञ- अहसान- फ़रामोश, बेवफा, नमकहराम।
  • अक्ल- प्रज्ञा, मेधा, मति, बुद्धि, विवेक।
  • अखिलेश्वर- ईश्वर, परमात्मा, परमेश्वर, भगवान, खुदा।
  • अगम- दुष्कर, कठिन, दुःसाध्य, अगम्य।
  • अच्छा- बढ़िया, बेहतर, भला, चोखा, उत्तम।
  • अजनबी- अनजान, अपरिचित, नावाकिफ।
  • अजीब- अदभुत, अनोखा, विचित्र, विलक्षण।

(आ)

  • आग – अग्नि अनल, पावक, ज्वाला, हुताश, कृशानु, वैश्वानर।
  • आभूषण – गहना, भूषण, अलंकार, जेवर।
  • आकाश – गगन, नभ, व्योम, अम्बर, आसमान, शून्य।
  • आकाश- आसमान, नभ, गगन, व्योम, फलक।
  • आक्रोश- क्रोध, रोष, कोप, रिष, खीझ।
  • आखेटक- शिकारी, बहेलिया, अहेरी, लुब्धक, व्याध।
  • आगंतुक- मेहमान, अतिथि, अभ्यागत।
  • आग- पावक, अनल, अग्नि, बाड़व, वहि।
  • आचरण- चाल-चलन, बर्ताव, व्यवहार, चरित्र।
  • आचार्य- शिक्षक, अध्यापक, प्राध्यापक, गुरु।
  • आजादी- स्वाधीनता, स्वतंत्रता, मुक्ति।
  • आजीविका- व्यवसाय, रोजी-रोटी, वृत्ति, धंधा।
  • आज्ञा- हुक्म, फरमान, आदेश।
  • आतिथ्य- मेहमानदारी, मेजबानी, मेहमाननवाजी, खातिरदारी।
  • आत्मा- रूह, जीवात्मा, जीव, अंतरात्मा।
  • आदत- स्वभाव, प्रकृति, प्रवृत्ति।
  • आदमी- मानव, मनुष्य, मनुज, मानुष, इंसान।
  • आनन- चेहरा, मुखड़ा, मुँह, मुखमंडल, मुख।
  • आबंटन- विभाजन, वितरण, बाँट, वंटन।
  • आबरू- सम्मान, प्रतिष्ठा, इज्जत।

(इ)

  • इन्द्र – महेन्द्र, देवराज, सुरेन्द्र, सुरपति, सुरेश, पुरन्दर, शक्र, देवेन्द्र।
  • इंदु- चाँद, चंद्रमा, चंदा, शशि, राकेश, मयंक, महताब।
  • इंसान- मनुष्य, आदमी, मानव, मानुष।
  • इंसाफ- न्याय, फैसला, अद्ल।
  • इजाजत- स्वीकृति, मंजूरी, अनुमति।

(ई)

  • ईश्वर – परमात्मा, परमेश्वर, भगवान्, प्रभु, जगदीश, सर्वेश।
  • ईप्सा- इच्छा, ख्वाहिश, कामना, अभिलाषा।
  • ईमानदारी- सच्चा, सत्यपरायण, नेकनीयत, सत्यनिष्ठ।
  • ईर्ष्या- विद्वेष, जलन, कुढ़न, ढाह।
  • ईसा- यीशु, ईसामसीह, मसीहा।

(उ)

  • उपवन – उद्यान, वाटिका, बाग बगीचा आराम, कानन
  • उत्पति- उद्गम, पैदाइश, जन्म, उद्भव, सृष्टि, आविर्भाव, उदय।
  • उद्धार- मुक्ति, छुटकारा, निस्तार, रिहाई।
  • उपाय- युक्ति, साधन, तरकीब, तदबीर, यत्न, प्रयत्न।
  • उज्र- ऐतराज, विरोध, आपत्ति।
  • उत्थान- उत्कर्ष, प्रगति, उन्नयन।
  • उत्साह- उमंग, जोश, उछाह।
  • उदार- फ़राख़दिल, क्षीरनिधि, दरियादिल, दानशील, दानी।
  • उदाहरण- मिसाल, नजीर, दृष्टांत।
  • उद्दंड- ढीठ, अशिष्ट, बेअदब, गुस्ताख़।
  • उद्देश्य- लक्ष्य, प्रयोजन, मकसद।
  • उद्यान- बगीचा, बाग, वाटिका, उपवन।
  • उन्नति- प्रगति, तरक्की, विकास, उत्कर्ष।
  • उपकार- भेंट, नजराना, तोहफा।
  • उपहास- परिहास, मजाक, खिल्ली।

(क)

  • कमल – राजीव, सरोज, पंकज, जलज, नीरज पयोज, नलिन।
  • कपड़ा – वस्त्र, वसन, पट, चीर, अम्बर।
  • कामदेव – अनंग, मदन, काम, मनोज।
  • कटक- फौज, सेना, पलटन, लश्कर, चतुरंगिणी।
  • कद्र- मान, सम्मान, इज्जत, प्रतिष्ठा।
  • कमजोर- निर्बल, बलहीन, दुर्बल, मरियल, शक्तिहीन।
  • कमला- लक्ष्मी, महालक्ष्मी, श्री, हरप्रिया।
  • कर्ज- उधार, ऋण, कर्जा, उधारी, कुसीद।
  • कलानाथ- चंद्रमा, कलाधर, सुधाकर, सोम, सुधांशु, हिमांशु, तारापति।
  • कल्याण- भलाई, परहित, उपकार, भला।
  • कष्ट- तकलीफ, पीड़ा, वेदना, दुःख।
  • काग- कौआ, कागा, काक, वायस।
  • कातिल- खूनी, हत्यारा, घातक।
  • कामधेनु- सुरभि, सुरसुरभि, सुरधेनु।
  • कायर- कापुरुष, डरपोक, बुजदिल।
  • किनारा – तट, तीर, कूल, कगार।
  • किरण – कर, अंशु, लेखा।
  • कृष्ण – केशव, श्याम, गोपाल, माधव, गिरिधर, नन्दनन्दन, यशोदानन्दन।
  • कोयल – पिक, कोकिला, वसन्तदूत।

(ग)

  • गंगा – भागीरथी, मन्दाकिनी, त्रिपथगा, जाह्नवी, देवनदी, सुरसरिता।
  • गन्ना- ईख, इक्षु, उक्षु, ऊख।
  • गरदन- गला, कंठ, ग्रीवा, गलई।
  • गल्ला- अन्न, अनाज, फसल, खाद्यान्न।
  • गाँव- ग्राम, देहात, खेड़ा, पुरवा, टोला।
  • गाथा- कथा, कहानी, किस्सा, दास्तान।
  • गाना- गान, गीत, नगमा, तराना।
  • अमरतरंगिनी, विष्णुपदी, नदीश्वरी, त्रिपथगा।
  • गज- हाथी, हस्ती, मतंग, कूम्भा, मदकल ।
  • गाय- गौ, धेनु, सुरभि, भद्रा, दोग्धी, रोहिणी।

(घ)

  • घर – गृह, भवन, सदन, आगार, गेह, निकेतन।
  • घोड़ा – अश्व, हय, बाजि, तुरंग।
  • घटना- हादसा, वारदात, वाक्या।
  • घन- मेघ, बादल, घटा, अंबुद, अंबुधर।
  • घपला- गड़बड़ी, गोलमाल, घोटाला।
  • घुमक्कड़- भ्रमणशील, पर्यटक, यायावर।
  • घूँस- घूस, रिश्वत, उत्कोच।

(च)

  • चन्द्रमा – शशि, चाँद, निशाचर, विधु, इन्दु, सुधाकर, सोम।
  • चन्द्रिका – ज्योत्स्ना, कौमुदी, शशिकला, चाँदनी।
  • चंडी- दुर्गा, अंबा, काली, कालिका, जगदंबिका, भगवती।
  • चंदन- गंधराज, गंधसार, मलयज।
  • चंद्रशेखर- महादेव, शिव, शंभु, शंकर, महेश्वर, नीलकंठ, आशुतोष।
  • चक्षु- नैन, आँख, दीदा, लोचन, नेत्र, नयन।
  • चतुरानन- विधाता, ब्रह्मा, सृष्टा, सृष्टिकर्ता।
  • चना- चणक, रहिला, छोला।
  • चर्मकार- मोची, चमार, पादुकाकार।
  • चारबाग- बाग, बगीचा, उपवन, उद्यान।
  • चारु- कमनीय, मनोहर, आकर्षक, खूबसूरत।
  • चावल- तंदुल, धान, भात।
  • चिट्ठी- पत्र, पाती, खत।
  • चिराग- दीया, दीपक, दीप, शमा।
  • चूहा- मूसा, मूषक, मुसटा, उंदुर।
  • चेरी- दासी, सेविका, बाँदी, नौकरानी, अनुचरी।
  • चेला- शागिर्द, शिष्य, विद्यार्थी।
  • चेहरा- शक्ल, आनन, मुख, मुखड़ा।
  • चोरी- स्तेय, चौर्य, मोष, प्रमोष।

(ज)

  • जंगल – अरण्य, वन, विपिन, कानन, कान्तार।
  • जल – पानी, नीर, सलिल, वारि, पया
  • छँटनी- कटौती, छँटाई, काट-छाँट।
  • छटा- शोभा, छवि, सुंदरता, खूबसूरती।
  • छल- दगा, ठगी, फरेब, छलावा।
  • छाछ- मही, मठा, मठ्ठा, लस्सी, छाछी।
  • छाती- सीना, वक्ष, उर, वक्षस्थल।
  • छींटाकशी- ताना, व्यंग्य, फब्ती, कटाक्ष।
  • छुटकारा- मुक्ति, रिहाई, निजात।
  • छेरी- बकरी, छागी, अजा।

(त)

  • तलवार – असि, खड्ग, करवाल, चन्द्रहास।
  • तारा – सितारा, नक्षत्र, उडु, तारक।
  • तालाब – सर, सरोवर [2013], जलाशय, ताल, तडाग।
  • तीर – बाण, शर, इषु, विशिख।
  • तबाह- ध्वस्त, नष्ट, बरबाद।
  • तम- अँधेरा, अंधकार, तिमिर, अँधियारा।
  • तमा- रजनी, रात, निशा, रात्रि।
  • तमारि- सूरज, सूर्य, दिवाकर, दिनकर, आदित्य, भानु, भास्कर।
  • तरनी- नौका, नाव, किश्ती, नैया।
  • तरुण- युवक, युवा, जवान, नौजवान।
  • तरुणाई- युवावस्था, यौवन, जवानी, जोबन।
  • तहजीब- संस्कृति, सभ्यता, तमद्दुन।
  • तिजारत- व्यवसाय, व्यापार, सौदागरी।
  • तिरिया- स्त्री, औरत, महिला, ललना।
  • तंगदस्त- तंगहाल, गरीब, फटेहाल, निर्धन।
  • तंज- कटाक्ष, ताना, व्यंग्य, फबती, छींटाकशी।
  • तंदुल- धान, चावल, अक्षत, चाउर।
  • तकदीर- किस्मत, मुकद्दर, नसीब, भाग्य, प्रारब्ध।
  • तट- कगार, किनारा, कूल, तीर, साहिल।

(द)

  • दिन – दिवस, वासर, वार, दिवा।
  • देवता – अमर, विबुध, सुर, देव, अजर।
  • देह – काया, शरीर, तन, गात्र, वपु, तनु।
  • धनुष – चाप, कोदण्ड, धनु, कार्मुक, शरासन।
  • दरीचा- खिड़की, गवाक्ष, झरोखा।
  • दशकंधर- दशानन, लंकापति, दशकंठ, रावण।
  • दशरथ- अवधेश, कौशलपति, दशस्यंदन, रावण।
  • दस्तूर- रीति-रिवाज, प्रथा, परंपरा, चलन।
  • दादा- पितामह, बाबा, आजा।
  • दादुर- मेंढक, मंडूक, भेक।
  • दुर्लभ- अलभ्य, दुष्प्राप्य, अप्राप्य।
  • दुविधा- कशमकश, पशोपेश, असमंजस, अनिश्चय।
  • दुश्मन- रिपु, वैरी, अरि, शत्रु, बैरी।
  • दुष्कर- कठिन, दुसाध्य, दूभर, मुश्किल।
  • देश- राष्ट्र, राज्य, मुल्क।
  • देशज- देशजात, देशीय, देशी, मुल्की, वतनी।
  • देशाटन- यात्रा, विहार, पर्यटन, देशभ्रमण।
  • देहाती- ग्रामवासी, ग्रामीण, ग्राम्य।
  • द्राक्षा- अंगूर, दाख, रसा, रसाला।
  • द्वेषी- विद्वेषी, ईर्ष्यालु, विरोधी।

(न)

  • नदी – सरित, सरिता, तटिनी, तरंगिणी, निर्झरिणी।
  • नौका – नाव, तरणी, तरी, बेड़ी।
  • नियम- उसूल, सिद्धांत, विधि, रीति।
  • निरक्षर- अनपढ़, अपढ़, अशिक्षित, लाइल्म।
  • निराला- अनूठा, अनोखा, अपूर्व, अद्भुत, अद्वितीय।
  • निवेदन- विनय, अनुनय, विनती, प्रार्थना, गुजारिश, इल्तजा।
  • निशा- रात्रि, रैन, रात, निशि, विभावरी।
  • निष्ठुर- निर्दयी, निर्मम, संगदिल, क्रूर, कठोर।
  • नीरस- फीका, बेरस, बेजायका, अस्वाद।
  • नूतन- नव, नवल, नव्य, नवीन।
  • नजीर- मिसाल, दृष्टांत, उदाहरण।
  • नशेमन- होंसला, आशियाना, नीड़।
  • नश्वर- नाशवान, फानी, क्षयी, क्षर, भंगुर, मर्त्य।
  • नसीहत- शिक्षा, सीख, उपदेश।
  • नसैनी- जीना, सीढ़ी, सोपान।

(प)

  • पत्थर – पाषाण, पाहन, प्रस्तर, अश्म।
  • पक्षी [2013] – विहग, विहंगम, खग, द्विज।
  • पति – भर्त्ता, आर्यपुत्र, स्वामी, कान्त, प्राणनाथ। पत्ता
  • पता – किसलय, पल्लव, पर्ण, पत्र।
  • पत्नी – भार्या, गृहिणी, घरवाली, सहधर्मिणी, अर्धांगिनी।
  • पहाड़ – पर्वत, गिरि, अचल, शैल, भूधर, नग।
  • पिता – बाप, जनक, ताता – सुत, तनय, तनुज, आत्मज, बेटा।
  • पुत्र – सुता, तनया, तनुजा, आत्मजा, बेटी।
  • पृथ्वी – धरती, भू, भूमि, धरा, अवनी, मही, वसुधा।
  • प्रकाश – ज्योति, द्युति, कान्ति, उजाला।
  • फूल – पुष्प, सुमन, कुसुम, प्रसून।

(ब)

  • बादल – मेघ, घन, वारिद, जलद, जलधर, पयोद।
  • बिजली – दामिनी, तड़ित, चंचला, चपला, विद्युत्।
  • ब्राह्मण – द्विज, भूसुर, भूदेव, विप्रा
  • बहेलिया- आखेटक, अहेरी, शिकारी, आखेटी।
  • बाँसुरी- वेणु, बंशी, मुरली, बंसुरी।
  • बाजि- घोड़ा, अश्व, घोटक, तुरंग, तुरग, हय।
  • बायस- कौआ, कागा, काक, एकाक्ष।
  • बारिश- चौमासा, बरसात, वर्षा, वर्षाऋतु।
  • बुड्ढा- बूढ़ा, बुजुर्ग, वृद्ध, जईफ, वयोवृद्ध।
  • बेगम- महारानी, रानी, राज्ञी, राजमहिषी।
  • बाल- कच, केश, चिकुर, चूल।
  • बंकिम- बाँका, तिरछा, वक्र, बंक, आड़ा।
  • बंजर- अनुपजाऊ, अनुर्वर, ऊसर।
  • बंदीगृह- कारागृह, कारागार, कारावास, कैदखाना, जेल।
  • बंधु- भ्राता, भाई, सहोदर, अग्रज, अनुज।

(भ)

  • भौंरा – भ्रमर, अलि, द्विरेफ, मधुप, मधुकर, षट्पद।
  • भाल- मस्तक, पेशानी, माथा, ललाट।
  • भाला- बर्छा, बरछा, नेजा, कुंत, शलाका।
  • भीष्म- गंगापुत्र, शांतनुसुत, भीष्मपितामह, देवव्रत।
  • भुजा- भुज, बाहु, बाँह, बाजू।
  • भेद- फर्क, अंतर, भिन्नता, विषमता।
  • भक्त- आराधक, अर्चक, पुजारी, उपासक, पूजक।
  • भगिनी- बहन, बहना, स्वसा, अग्रजा।
  • भद्र- शिष्ट, शालीन, कुलीन, सभ्य, सलीकेदार, बासलीक़ा।
  • भरतखंड- भारतवर्ष, आर्यावर्त, भारत, हिंदुस्तान, हिंदोस्ताँ।
  • भरोसा- यकीन, विश्वास, ऐतबार, अक़ीदा, आश्वास।
  • भव- संसार, दुनिया, जग, जहाँ, विश्व, खलक, खल्क।

(म)

  • मदिरा – सुरा, पय, मधु, शराब।
  • मनुष्य – मानव, नर, मनुज, आदमी, मर्त्य।
  • माता – माँ, जननी, जाया, अम्बा।
  • माधुर्य – मिठास, मधुरिमा।
  • मित्र – दोस्त, सखा, सहचर, मीत।
  • मुख – वदन, आनन, मुँह।
  • मोक्ष – निर्वाण, कैवल्य, मुक्ति परमपद।
  • मंतव्य- अभिमत, सम्मति, राय, सलाह, विचार।
  • मंसूख- रद्द, निरस्त, ख़ारिज, निरसित।
  • मकड़ी- मकरी, लूता, लूतिका, लूत।
  • मकतब- स्कूल, पाठशाला, विद्यालय, विद्यापीठ।
  • मकर- मगर, मगरमच्छ, घड़ियाल, नक्र, ग्राह, झषराज।
  • मजार- मकबरा, समाधि, कब्र, इमामबाड़ा।
  • मटका- कुंभ, झट, घड़ा, कलश।
  • मत्सर- द्वेष, ईर्ष्या, कुढ़न, जलन, डाह।
  • मनीषा- मति, बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा, विचार।
  • मयूख- किरन, किरण, रश्मि, अंशु, मरीचि।
  • मरघट- मसान, मुर्दघाट, श्मशान, श्मशानघाट।
  • मरहूम- स्वर्गवासी, मृत, गोलोकवासी, दिवंगत।
  • मराल- हंस, राजहंस, सितपक्ष, धवलपक्ष।
  • मरुत- पवन, वायु, हवा, वात, समीर, मारुत।
  • मर्कट- बंदर, कपि, कीश, वानर, शाखामृग।

(य)

  • यमुना – सूर्यसुता, कालिन्दी, सूर्यतनया, तरणि-तनूजा, रविसुता।
  • युद्ध – संग्राम, लड़ाई, समर, रण।
  • याज्ञसेनी- पांचाली, द्रौपदी, सैरंध्री, द्रुपदसुता, कृष्णा।
  • याद- स्मृति, स्मरण, स्मरण-शक्ति, सुध, याद्दाश्त।
  • याम- पहर, प्रहर, बेला, वेला, जून।
  • यामिनी- रजनी, रात, रात्रि, रैन, राका, निशा।
  • युग- जुग, दौर, मन्वंतर, काल, कल्प, जमाना।
  • युद्ध- संग्राम, संघर्ष, समर, लड़ाई, रण, द्वंद्व।
  • यकीन- भरोसा, ऐतबार, आस्था, विश्वास।
  • यकृत- जिगर, कलेजा, जिगरा, पित्ताशय।
  • यक्ष्मा- टी.बी., तपेदिक, राजरोग, क्षय।
  • यज्ञोपवीत- जनेऊ, उपवीत, ब्रह्मसूत्र।
  • यतीम- बेसहारा, अनाथ, माँ-बापविहीन।

(र)

  • राजा – नृप, भूप, भूपति, नरेश, नृपति, महीप।
  • रात – रात्रि, रजनी, निशा, विभावरी, यामिनी।
  • राक्षस – दनुज, रजनीचर, निशाचर, दैत्य, दानव।
  • कमलेन्द्र, कौशल्यानन्दन।
  • रावण- दशानन, लंकेश, लंकापति, दशशीश, दशकंध, दैत्येन्द्र।
  • राधिका- राधा, ब्रजरानी, हरिप्रिया, वृषभानुजा।
  • रक्त- खून, लहू, रुधिर, शोणित, लोहित।

(ल)

  • लक्ष्मी – पद्म, रमा, कमला, श्री, चंचला।
  • लक्ष्मण- लखन, शेषावतार, सौमित्र, रामानुज, शेष।
  • लौह- अयस, लोहा, सार।
  • लता- बल्लरी, बल्ली, बेली।

(व)

  • वायु – अनिल, वात, पवन, समीर, हवा।
  • वृक्ष – पेड़, पादप, विटप, द्रुम, तरु।
  • वारिश- वर्षण, वृष्टि, वर्षा, पावस, बरसात।
  • वीर्य- जीवन, सार, तेज, शुक्र, बीज।
  • वज्र- कुलिस, पवि, अशनि, दभोलि।
  • वायु- हवा, पवन, समीर, अनिल, वात, मारुत।
  • वसन- अम्बर, वस्त्र, परिधान, पट, चीर।
  • विधवा- अनाथा, पतिहीना, राँड़।
  • विष- ज़हर, हलाहल, गरल, कालकूट।

(श)

  • शत्रु – अरि, वैरी, दुश्मन, विपक्षी, रिपु।
  • शिक्षक- गुरु, अध्यापक, आचार्य, उपाध्याय।
  • शेषनाग- अहि, नाग, भुजंग, व्याल, उरग, पन्नग, फणीश, सारंग।
  • शुभ्र- गौर, श्वेत, अमल, वलक्ष, धवल, शुक्ल, अवदात।
  • शहद- पुष्परस, मधु, आसव, रस, मकरन्द।
  • सरस्वती- गिरा, शारदा, भारती, वीणापाणि, विमला, वागीश, वागेश्वरी।
  • सेना- ऊनी, कटक, दल, चमू, अनीक, अनीकिनी।
  • साधु- सज्जन, भद्र, सभ्य, शिष्ट, कुलीन।
  • सलिल- अम्बु, जल नीर, तोय, सलिल, पानी, वारि।
  • सगर्भ- बंधु, भाई, सजात, सहोदर, भ्राता, सोदर।
  • सगर्भा- भगिनी, सजाता, सहोदर, बहिन, सोदरा।

(स)

  • संसार – विश्व, जगत्, दुनिया।
  • सर्प – साँप, भुजंग, नाग, अहि, विषधर, व्याल, फणि।
  • समुद्र – सागर, सिन्धु, रत्नाकर, जलधि, जलनिधि, नदीश, उदधि, पयोधि।
  • सरस्वती – गिरा, वाणी, शारदा, वीणापाणि, वागेश्वरी, महाश्वेता।
  • सवेरा – सूर्योदय, अरुणोदय, प्रातः, ऊषा, भोर।
  • सिंह – शेर, मृगपति, वनराज, केसरी।
  • सुन्दर – रम्य, काम्य, कमनीय, मनोहर, ललाम, ललित, अभिराम।
  • सुगन्ध – सौरभ, सुरभि, खूशबू, महक।
  • सूर्य – सूरज, रवि, आदित्य, दिनकर, भानु, भास्कर, दिनेश, दिवाकर।
  • सेना – अनी, कटक, चमू, फौज, दल।
  • सोना – स्वर्ण, हेम, कनक, कंचन, कुन्दन।
  • सौन्दर्य – सुषमा, शोभा, सुन्दरता।
  • स्त्री – नारी, महिला, अबला, रमणी, ललना, कान्ता, वामा।

पर्यायवाची शब्द अभ्यास

प्रश्न-निम्नलिखित में से किन्हीं दो के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए
1. सरोवर-जलाशय, कासार, सरसी, सर, तडाग, हृद, पुष्करणी, पुष्कर, पद्माकर।
2. वायु-पवन, नभस्वान् , मारुत, समीर, मरुत।
3. गौ-धेनु, पयस्विनी, सुरभि।
4. आकाश-व्योम, नभ, वियत्, खे, अम्बर, अनन्त, गगन, अन्तरिक्ष, द्यौ।
5. मातृ-अम्बिका, जननी, जन्मदा, प्राणदा, मातृका, जनयित्री।
6. पितृ-जनक, जन्मद, पालयिता, तात, गुरु, जनयिता।
7. चन्द्र-चन्द्र, हिमांशु, हिमरश्मि, शीतांशु, शीतकर, हिमकर, इन्दु, कुमुदबान्धव, द्विजराज, शशधर, शशांक, राकेश, रजनीश, नक्षत्रेश, क्षपांकर, कलाधर, कलानिधि, निशाकर, निशापति, मंयक, राकापति।
8. कमल-नीरज, अम्बुज, पद्म, सरोज, पंकज, वारिजा
9. नदी-सरित्, आपगा, तरंगिणी।।
10. धेनु-गो, सुरभि, पयस्विनी, क्षीरा, गाय
11. गणेश-वक्रतुण्ड, गजानन, लम्बोदर, गणपति।
अथवा

प्रश्न–
किन्हीं दो शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द कोष्ठक में दिए गए शब्दों में से छाँटकर लिखिए
1. (क) गो, (ख) चन्द्र, (ग) सरोवर। (तडाग, धेनु, पुष्कर, सुरभि, राकेश, विधु)
उत्तर-
(क) गो-धेनु, सुरभिा (ख) चन्द्र-राकेश, विधु। (ग) सरोवर-तडाग, पुष्कर।

2. (क) वायु, (ख) आकाश, (ग) सरोवर। (कासर, द्यौ, अनिल, तटाक, खे, मारुत) [2006]
उत्तर-
(क) वायु-अनिल, मारुत। (ख) आकाश-द्यौ, खे। (ग) सरोवर-कासार, तटाक। [2003]

3. (क) जलाशय, (ख) नभ, (ग) मातृ। [2007]
(माता, तडाग, व्योम, हृद, गगन, जननी)
उत्तर-
(क) जलाशय-तडाग, हृद। (ख) नभ-व्योम, गगन। (ग) मातृ-माता, जननी।

4. (क) वायु, (ख) मातृ, (ग) आकाश। [2007]
(खे, अम्बिका, अनिल, मारुत, द्यौ, जननी)
उत्तर-
(क) वायु-अनिल, मारुत। (ख) मातृ-अम्बिका, जननी। (ग) आकाश-खे, द्यौ।

5. (क) आकाश, (ख) चन्द्र, (ग) मातृ। [2008]
(अम्बिका, गगन, विधु, जननी, नभ, रजनीश)
उत्तर-
(क) आकाश-गगन, नभ। (ख) चन्द्र-विधु, रजनीशा (ग) मातृ-अम्बिका, जननी।

Hindi Muhavare(Idioms)(मुहावरे)

hindi muhavare

मुहावरे (Idioms) Hindi Muhavare

लोकोक्तियों एवं मुहावरों का महत्त्व – Muhavare in Hindi

भाषा को सशक्त एवं प्रवाहमयी बनाने के लिए लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग किया जाता है। वार्तालाप के बीच में इनका प्रयोग बहुत सहायक होता है। कभी-कभी तो मात्र मुहावरे अथवा लोकोक्तियों के कथन से ही बात बहुत अधिक स्पष्ट हो जाती है और वक्ता का उद्देश्य भी सिद्ध हो जाता है। इनके प्रयोग से हास्य, क्रोध, घृणा, प्रेम, ईर्ष्या आदि भावों को सफलतापूर्वक प्रकट किया जा सकता है।

लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग करने से भाषा में निम्नलिखित गुणों की वृद्धि होती है
(1) वक्ता का आशय कम-से-कम शब्दों में स्पष्ट हो जाता है।
(2) वक्ता अपने हृदयस्थ भावों को कम-से-कम शब्दों में प्रभावपूर्ण ढंग से सफलतापूर्वक अभिव्यक्त कर देता है।
(3) भाषा सबल, सशक्त एवं प्रभावोत्पादक बन जाती है।
(4) भाषा की व्यंजना-शक्ति का विकास होता है।

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 Hindi Muhavare with Meanings and Sentences – मुहावरे और लोकोक्ति का अर्थ या वाक्य

(1) मुहावरा—मुहावरा अरबी भाषा का शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है—’अभ्यास’। हिन्दी में यह शब्द रूढ़ हो गया है, जिसका अर्थ है—“लक्षणा या व्यंजना द्वारा सिद्ध वाक्य, जो किसी एक ही बोली या लिखी जानेवाली भाषा में प्रचलित हो और जिसका अर्थ प्रत्यक्ष अर्थ से विलक्षण हो।”

संक्षेप में ऐसा वाक्यांश, जो अपने साधारण अर्थ को छोड़कर किसी विशेष अर्थ को व्यक्त करे, मुहावरा कहलाता है। इसे ‘वाग्धारा’ भी कहते हैं।

(2) लोकोक्ति-यह शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है—’लोक’ + ‘उक्ति’, अर्थात् किसी क्षेत्र-विशेष में कही हुई बात। इसके अन्तर्गत किसी कवि की प्रसिद्ध उक्ति भी आ जाती है। लोकोक्ति किसी प्रासंगिक घटना पर आधारित होती है। समाज के प्रबुद्ध साहित्यकारों, कवियों आदि द्वारा जब किसी प्रकार के लोक-अनुभवों को एक ही वाक्य में व्यक्त कर दिया जाता है तो उनको प्रयुक्त करना सुगम हो जाता है। ये वाक्य अथवा लोकोक्तियाँ (कहावतें, सूक्ति) गद्य एवं पद्य दोनों में ही देखने को मिलते हैं। इस प्रकार ऐसा वाक्य, कथन अथवा उक्ति, जो अपने विशिष्ट अर्थ के आधार पर संक्षेप में ही किसी सच्चाई को प्रकट कर सके, ‘लोकोक्ति’ अथवा ‘कहावत’ कही जाती है।

मुहावरे और लोकोक्ति में अन्तर-मुहावरा देखने में छोटा होता है, अर्थात् यह पूरे वाक्य का एक अंग-मात्र होता है, साथ ही इसमें लाक्षणिक अर्थ की प्रधानता होती है; जैसे—लाठी खाना। इस वाक्यांश में ‘खाना’ का लक्ष्यार्थ ‘प्रहार सहना’ है; क्योंकि लाठी खाने की चीज नहीं है, परन्तु लोकोक्ति में जिस अर्थ को प्रकट किया जाता है, वह लगभग पूर्ण होता है। उसमें अधूरापन नहीं होता; जैसे-उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे। . इस उदाहरण में अर्थ का अधूरापन नहीं है, न वाक्य ही अधूरा है।

मुहावरों और लोकोक्तियों का वाक्यों में प्रयोग साधारणत: देखा जाता है कि मुहावरों और लोकोक्तियों का ‘अर्थ और वाक्य में प्रयोग’ पूछे जाने पर छात्र उनका अर्थ तो बता देते हैं, परन्तु वाक्य में प्रयोग उचित प्रकार से नहीं कर पाते। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग में हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि हमारे वाक्य-प्रयोग से उनका अर्थ बिल्कुल स्पष्ट हो जाए। सामान्य रूप से छात्र किसी भी मुहावरे आदि से पूर्व मैं, तुम या किसी व्यक्ति का नाम रखकर वाक्य को पूरा कर देते हैं। इस प्रकार का प्रयोग उचित व अर्थ को स्पष्ट करनेवाला नहीं होता;

जैसे-
(1) अपनी खिचड़ी अलग पकाना-सबसे पृथक् काम करना।
वाक्य-प्रयोग-वह अपनी खिचड़ी अलग पकाता है।

(2) आँखों में धूल झोंकना-धोखा देना।
वाक्य-प्रयोग-तुमने उसकी आँखों में धूल झोंक दी।

उपर्युक्त उदाहरणों से मुहावरों का अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है। इनके स्थान पर शुद्ध, अर्थपूर्ण और पूर्ण वाक्यों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

शुद्ध एवं आदर्श वाक्य-प्रयोग-

1. अपनी खिचड़ी अलग पकाना-सबसे पृथक् काम करना।
वाक्य-प्रयोग-हमारी कक्षा के कुछ छात्र पिकनिक मनाने के लिए गए। पिकनिक-स्थल पर जाकर आगे का कार्यक्रम निश्चित हुआ। सर्वप्रथम सभी साथी भोजन की व्यवस्था में लग गए, परन्तु मोहन अकेले ही जंगल में घूमने की जिद करने लगा। सभी ने उससे यही कहा कि तुम अपनी खिचड़ी अलग पकाते हो, यह अच्छी बात नहीं है। सभी लोग साथ चलेंगे।

2. आँखों में धूल झोंकना-धोखा देना। . वाक्य-प्रयोग हमारे भाई यद्यपि रेलयात्रा में पर्याप्त सतर्क रहते हैं, तथापि लखनऊ के स्टेशन पर किसी ने उनसे 50 रुपये ठगकर उनकी आँखों में धूल झोंक दी।

कुछ महत्त्वपूर्ण मुहावरे एवं उनके वाक्यों में प्रयोग

1. अँगारे बरसना—अत्यधिक गर्मी पड़ना।
जून मास की दोपहरी में अंगारे बरसते प्रतीत होते हैं।

2. अंगारों पर पैर रखना-कठिन कार्य करना।
युद्ध के मैदान में हमारे सैनिकों ने अंगारों पर पैर रखकर विजय प्राप्त की।

3. अँगारे सिर पर धरना—विपत्ति मोल लेना।
सोच-समझकर काम करना चाहिए। उससे झगड़ा लेकर व्यर्थ ही अंगारे सिर पर मत धरो।

4. अँगूठा चूसना-बड़े होकर भी बच्चों की तरह नासमझी की बात करना।
कभी तो समझदारी की बात किया करो। कब तक अंगूठा चूसते रहोगे?

5. अँगूठा दिखाना-इनकार करना।
जब कृष्णगोपाल मन्त्री बने थे तो उन्होंने किशोरी को आश्वासन दिया था कि जब उसका बेटा इण्टर कर लेगा तो वह उसकी नौकरी लगवा देंगे। बेटे के प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने पर किशोरी ने उन्हें याद दिलाई तो उन्होंने उसे अँगूठा दिखा दिया।

6. अँगूठी का नगीना-अत्यधिक सम्मानित व्यक्ति अथवा वस्तु।
अकबर के नवरत्नों में बीरबल तो जैसे अंगूठी का नगीना थे।

7. अंग-अंग फूले न समाना-अत्यधिक प्रसन्न होना। राम के अभिषेक की बात सुनकर कौशल्या का अंग-अंग फूले नहीं समाया।

8. अंगद का पैर होना-अति दुष्कर/असम्भव कार्य होना।
यह पहाड़ी कोई अंगद का पैर तो है नहीं, जिसे हटाकर रेल की पटरी न बिछाई जा सके।

9. अन्धी सरकार—विवेकहीन शासन।
कालाबाजारी खूब फल-फूल रही है, किन्तु अन्धी सरकार उन्हीं का पोषण करने में लगी है।

10. अन्धे की लाठी लकड़ी.होना-एकमात्र सहारा होना। निराशा में प्रतीक्षा अन्धे की लाठी है।

11. अन्धे के आगे रोना-निष्ठुर के आगे अपना दुःखड़ा रोना।।
जिस व्यक्ति ने पैसों के लिए अपनी पत्नी को जलाकर मार दिया, उससे सहायता माँगना तो अन्धे के आगे रोना जैसा व्यर्थ है।

12. अम्बर के तारे गिनना-नींद न आना।
तुम्हारे वियोग में मैं रातभर अम्बर के तारे गिनता रहा।

13. अन्धे के हाथ बटेर लगना-भाग्यवश इच्छित वस्तु की प्राप्ति होना।
तृतीय श्रेणी में स्नातक लोकेन्द्र को क्लर्क की नौकरी क्या मिली, मानो अन्धे के हाथों बटेर लग गई।

14. अन्धों में काना राजा-मूों के बीच कम ज्ञानवाले को भी श्रेष्ठ ज्ञानवान् माना जाता है।
कभी आठवीं पास मुंशीजी अन्धों में काने राजा हुआ करते थे; क्योंकि तब बारह-बारह कोस तक विद्यालय न थे।

15. अक्ल का अन्धा-मूर्ख।
वह लड़का तो अक्ल का अन्धा है, उसे कितना ही समझाओ, मानता ही नहीं है।

16. अक्ल के घोड़े दौड़ाना-हवाई कल्पनाएँ करना।
परीक्षा में सफलता परिश्रम करने से ही मिलती है, केवल अक्ल के घोड़े दौड़ाने से नहीं।

17. अक्ल चरने जाना-मति-भ्रम होना, बुद्धि भ्रष्ट हो जाना।
दुर्योधन की तो मानो अक्ल चरने चली गई थी, जो कि उसने श्रीकृष्ण के सन्धि-प्रस्ताव को स्वीकार न करके उन्हें ही बन्दी बनाने की ठान ली।

18. अक्ल पर पत्थर पड़ना-बुद्धि नष्ट होना।
राजा दशरथ ने कैकेयी को बहुत समझाया कि वह राम को वन भेजने का वरदान न माँगे; पर उसकी अक्ल पर पत्थर पड़े हुए थे; अत: वह न मानी।

19. अक्ल के पीछे लाठी लिये फिरना-मूर्खतापूर्ण कार्य करना। तुम स्वयं तो अक्ल के पीछे लाठी लिये फिरते हो, हम तुम्हारी क्या सहायता करें।

20. अगर मगर करना-बचने का बहाना ढूँढना।
अब ये अगर-मगर करना बन्द करो और चुपचाप स्थानान्तण पर चले जाओ, गोपाल को उसके अधिकारी ने फटकार लगाते हुए यह कहा।

21. अटका बनिया देय उधार-जब अपना काम अटका होता है तो मजबूरी में अनचाहा भी करना पड़ता है।
जब बहू ने हठ पकड़ ली कि यदि मुझे हार बनवाकर नहीं दिया तो वह देवर के विवाह में एक भी गहना नहीं देने देगी, बेचारी सास क्या करे! अटका बनिया देय उधार और उसने बहू को हार बनवा दिया।

22. अधजल गगरी छलकत जाए-अज्ञानी पुरुष ही अपने ज्ञान की शेखी बघारते हैं।
आठवीं फेल कोमल अपनी विद्वत्ता की बड़ी-बड़ी बातें करती है। आखिर करे भी क्यों नहीं, अधजल गगरी छलकत जाए।

23. अन्त न पाना-रहस्य न जान पाना।
गुरुजी ने अपने प्रवचन में ईश्वर की महिमा का गुणगान करते हुए बताया कि ईश्वर की माया का अन्त किसी ने नहीं पाया है।

24. अन्त बिगाड़ना-नीच कार्यों से वृद्धावस्था को कलंकित करना।
लाला मनीराम को बुढ़ापे में भी घटतौली करते देखकर गोविन्द ने उससे कहा कि लाला कम-से-कम अपना अन्त तो न बिगाड़ो।

25. अन्न-जल उठना-मृत्यु के सन्निकट होना।
रामेश्वर की माँ की हालत बड़ी गम्भीर है, लगता है कि अब उसका अन्न-जल उठ गया है।

26. अपना उल्लू सीधा करना-अपना काम निकालना।
कुछ लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए दूसरों को हानि पहुँचाने से भी नहीं चूकते।

27. अपनी खिचड़ी अलग पकाना – सबसे पृथक् कार्य करना।
कुछ लोग मिलकर कार्य करने के स्थान पर अपनी खिचड़ी अलग पकाना पसन्द करते हैं।

28. अपना राग अलापना-दूसरों की अनसुनी करके अपने ही स्वार्थ की बात कहना।
कुछ व्यक्ति सदैव अपना ही राग अलापते रहते हैं, दूसरों के कष्ट को नहीं देखते।

29. अपने मुँह मियाँ मिट्ठ बनना-अपनी प्रशंसा स्वयं करना।
अपने मुँह मियाँ मिट्ठ बननेवाले का सम्मान धीरे-धीरे कम हो जाता है।

30. अपना-सा मुँह लेकर रह जाना-लज्जित होना।
अपनी झूठी बात की वास्तविकता का पता चलने पर वह अपना-सा मुँह लेकर रह गया।

31. अपना घर समझना–संकोच न करना।
राम अपने मित्र के घर को अपना घर समझता है। इसलिए वहाँ वह अपनी सब परेशानियाँ कह देता है।

32. अपने पैरों पर खड़ा होना स्वावलम्बी होना।
जब तक लड़का अपने पैरों पर खड़ा न हो जाए, तब तक उसकी शादी करना उचित नहीं है।

33. अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना-अपने अहित का काम स्वयं करना।
तुमने अपने मन की बात प्रकट करके अपने पाँव में स्वयं कुल्हाड़ी मारी।

34. आकाश-पाताल एक करना-अत्यधिक प्रयत्न अथवा परिश्रम करना।
वानरों ने सीताजी की खोज के लिए आकाश-पाताल एक कर दिया।

35. आँख चुराना-बचना, छिप जाना।
मुझसे रुपये उधार लेने के बाद मोहन निरन्तर आँख चुराता रहता है, मेरे सामने नहीं आता।

36. आँखें फेरना-उपेक्षा करना, कृपा दृष्टि न रखना।
जिससे ईश्वर भी आँखे फेर ले, भली कोई उसकी सहायता कैसे कर सकता है।

37. आँखें बिछाना-आदरपूर्वक किसी का स्वागत करना।
यहाँ कोई ऐसा नहीं है, जो तुम्हारे लिए आँखें बिछाए बैठा रहेगा, व्यर्थ के भुलावे में न रहो।

38. आँख मिलाना-सामने आना।
अपनी कलई खुल जाने के बाद रमेश मुझसे आँख मिलाने का साहस नहीं रखता।

39. आँखें खुल जाना—वास्तविकता का ज्ञान होना, सीख मिलना।
विवेक के अपहरण में उसके मित्र की संलिप्तता देखकर लोगों की आँखें खुल गईं कि अब किसी पर विश्वास करने का जमाना नहीं रह गया है।

40. आँखें नीची होना-लज्जा से गड़ जाना, लज्जा का अनुभव करना।
छेड़खानी के आरोप में बेटे को हवालात में बन्द देखकर पिता की आँखें नीची हो गईं।

41. आँखें चार होना/आँखें दो-चार होना-प्रेम होना।
दुष्यन्त और शकुन्तला की आँखें चार होते ही उनके हृदय में प्रेम का उद्रेक हो गया।

42. आँख का तारा-अत्यन्त प्यारा।
प्रत्येक सुपुत्र अपने माता-पिता की आँखों का तारा होता है।

43. आँखों पर परदा पड़ना-विपत्ति की ओर ध्यान न जाना।
कमला की आँखों पर तो परदा पड़ गया, जो उसने गुस्साई बहू को दुकान से मिट्टी का तेल लेने भेज दिया।

44. आँखों में धूल झोंकना-धोखा देना।
राम बहुत समझदार है तो भी किसी व्यक्ति ने उसकी आँखों में धूल झोंककर उसे नकली नोट दे दिया।

45. आँखों में सरसों का फूलना-मस्ती होना।
वह कुछ इस तरह का सिरफिरा था कि उसकी आँखों में सदा सरसों फूलती रहती थी।

46. आँखों का पानी ढलना-निर्लज्ज हो जाना।
जिनकी आँखों का पानी ढल गया है, उन्हें नीच-से-नीच काम करने में भी संकोच नहीं होता।

47. आँख दिखाना—क्रुद्ध होना।
उधार लेते समय प्रत्येक व्यक्ति बड़े प्रेम से बात करता है, किन्तु वापस करते समय आँख दिखाना साधारण-सी बात है।

48. आँचल-बाँधना-गाँठ बाँधना, याद कर लेना।
यह बात प्रत्येक कन्या को आँचल-बाँध लेनी चाहिए कि सास-ससुर को अपने माता-पिता माननेवाली बहू ही ससुराल में आदर पाती है।

49. आग-बबूला होना-अत्यधिक क्रोध करना।
नौकरानी से टी-सेट टूट जाने पर मालकिन एकदम आग-बबूला हो गई।

50. आग में घी डालना-क्रोध अथवा झगड़े को और अधिक भड़का देना।
बेटी के मुँह से बहू की शिकायत सुनकर सास वैसे ही भरी बैठी थी, बस बहू की टिप्पणी ने तो जैसे आग में घी डाल दिया और सास ने रौद्र रूप दिखाते हुए बहू को चोटी पकड़कर घर से बाहर कर दिया।

51. आठ-आठ आँसू बहाना-बहुत अधिक रोना।
सुभाष अपने पिता के स्वर्गवास पर आठ-आठ आँसू रोया।

52. आड़े हाथों लेना-शर्मिन्दा करना।
मोहन बहुत बढ़-चढ़कर बातें कर रहा था, जब मैंने उसे आड़े हाथों लिया तो उसकी बोलती बन्द हो गई।

53. आधा तीतर आधा बटेर-अधूरा ज्ञान।
या तो हिन्दी बोलिए या अंग्रेजी। यह क्या, आधा तीतर आधा बटेर।

64. आपे से बाहर होना-सामर्थ्य से अधिक क्रोध प्रकट करना।
अपने साथी की पिटाई का समाचार सुनते ही छात्र आपे से बाहर हो गए।

55. आसमान टूट पड़ना-अचानक घोर विपत्ति आ जाना।
यूसुफ जाई मलाला ने स्त्री शिक्षा का समर्थन क्या किया, उस पर तो मानो आसमान टूट पड़ा और उसकी जान पर बन आई।

56. आसमान से बातें करना-बहुत बढ़-चढ़कर बोलना।
यद्यपि दीपक एक साधारण लिपिक का पुत्र है, किन्तु अपने साथियों में बैठकर वह आसमान से बातें करता है।

57. आसमान पर दिमाग चढ़ना-अत्यधिक घमण्ड होना।
परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते ही रमेश का दिमाग आसमान पर चढ़ गया।

58. आसमान पर थूकना-सच्चरित्र व्यक्ति पर कलंक लगाने का प्रयास करना।
महात्मा गांधी पर विभिन्न प्रकार के आरोप लगानेवाले यह नहीं सोचते कि हम आसमान पर थूक रहे हैं।

59. आस्तीन का साँप-कपटी मित्र।
प्रदीप से अपनी व्यक्तिगत बात मत कहना, वह आस्तीन का साँप है; क्योंकि आपकी सभी बातें वह अध्यापक महोदय को बता देता है।

60. इज्जत मिट्टी में मिलाना-मान-मर्यादा नष्ट करना।
अन्तर्जातीय विवाह के लिए अड़ी अपनी बेटी के सामने गिड़गिड़ाते हुए उसकी माँ ने कहा-बेटी तू हमारी इज्जत मिट्टी में मत मिला।

61. इधर की उधर लगाना-चुगली करना।
अनेक लोग ऐसे होते हैं, जो इधर की उधर लगाकर लोगों में विवाद कराते रहते हैं।

62.. ईंट से ईंट बजाना-हिंसा का करारा जवाब देना, खुलकर लड़ाई करना।
तुम मुझको कमजोर मत समझो, समय आने पर मैं ईंट से ईंट बजाने के लिए भी तैयार हूँ।

63. ईमान बेचना-विश्वास समाप्त करना।
ईमान बेचकर धन कमाना मनुष्य को शोभा नहीं देता।

64. ईद का चाँद होना-कभी-कभी दर्शन देना।
नौकरी पर चले जाने के बाद दीपक बहुत दिनों पश्चात् अपने मित्र से मिला। इस पर मित्र ने कहा कि यहाँ से जाने के बाद तो तुम ईद के चाँद ही हो गए।

65. उँगली उठाना—दोष दिखाना।
समय आने पर ही वास्तविकता का पता चलता है। प्रदीप की सच्चाई पर किसी को सन्देह नहीं था, किन्तु अब तो लोग उस पर भी उँगली उठाने लगे हैं।

66. उँगली पकड़ते-पकड़ते पहुँचा पकड़ना-थोड़ा प्राप्त हो जाने पर अधिक पर अधिकार जमाना।
पहले सुरेश कभी-कभी पुस्तक माँगकर ले जाता था, किन्तु अब उसने उँगली पकड़ते-पकड़ते पहुँचा पकड़ लिया है। अब तो वह कोई भी पुस्तक ले जाता है और पूछने का कष्ट भी नहीं करता।

67. उँगली पर नचाना-संकेत पर कार्य कराना।
रमेश अपनी पत्नी को उँगलियों पर नचाता है।

68. उड़ती चिड़िया पहचानना-दूर से भाँप लेना।
दारोगा ने सिपाही से कहा, “ऐसा अनाड़ी नहीं हूँ, उड़ती चिड़िया पहचानता हूँ।”

69. उड़ती चिड़िया के पंख गिनना-कार्य-व्यापार को देखकर व्यक्तित्व को जान लेना।
उड़ती चिड़िया के पंख गिननेवाले गुरु विरजानन्द ने दयानन्द को निस्संकोच अपना शिष्य बना लिया।

70. ऊँची दुकान फीके पकवान-प्रसिद्ध स्थान की निकृष्ट वस्तु होना।
हम यह सोचकर बड़ी मिल का कपड़ा लाए थे कि अधिक चलेगा, किन्तु धोते ही उसका रंग निकल गया। यह तो वही हुआ कि ऊँची दुकान फीके पकवान।

71. ऊँट के मुँह में जीरा-बहुत कम मात्रा में कोई वस्तु देना।
मोहन प्रतिदिन दस रोटियाँ खाता है, उसे दो रोटियाँ देना तो ऊँट के मुँह में जीरा देने के समान है।

72. उल्टी गंगा बहाना—परम्परा के विपरीत काम करना।
सदैव उल्टी गंगा बहाकर समाज में वैचारिक क्रान्ति नहीं लाई जा सकती।

73. उल्टी माला फेरना—किसी के अमंगल की कामना करना, लोक विश्वास अथवा परम्परा के विपरीत कार्य करना।
उल्टी माला फेरकर किसी का अहित नहीं किया जा सकता।

74. उल्लू सीधा करना किसी को बेवकूफ बनाकर काम निकालना।
फसाद करानेवाले लोग तो अपना ही उल्लू सीधा करते हैं।

75. एक आँख से देखना-सबके साथ समानता का व्यवहार करना, पक्षपातरहित होना।
सच्चा शासक वही होता है, जो सबको एक आँख से देखता है।

76. एक अनार सौ बीमार-एक वस्तु के लिए बहुत-से व्यक्तियों द्वारा प्रयत्न करना।
मेरे पास पुस्तक एक है और माँगनेवाले दस छात्र हैं। यह तो वही बात हुई कि एक अनार सौ बीमार।

77. एक और एक ग्यारह होना-एकता में शक्ति होना।
उनको कमजोर मत समझो, आवश्यकता पड़ने पर वे एक और एक ग्यारह हो जाते हैं।

78. एक हाथ से ताली नहीं बजती-झगड़ा एक ओर से नहीं होता।
मिताली सच-सच बताओ क्या बात है; क्योंकि यह बात तुम भी अच्छी तरह जानती हो कि एक हाथ से ताली नहीं बजती।

79. एड़ी-चोटी का पसीना एक करना-अत्यधिक परिश्रम करना।
अच्छी श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण करना कोई सरल कार्य नहीं है। एड़ी-चोटी का पसीना एक करने पर ही अच्छे अंक प्राप्त किए जा सकते हैं।

80. ऐसी-तैसी करना-अपमानित करना/काम खराब करना।
मण्डलीय समीक्षा करते समय मुख्यमन्त्री ने उन अधिकारियों की ऐसी-तैसी कर दी, जो पूरी तैयारी के साथ नहीं आए थे।

81. ओखली में सिर देना-जान-बूझकर अपने को मुसीबत में डालना।
उस नामी गुण्डे को छेड़कर क्यों ओखली में सिर दे रहे हो।

82. कंगाली में आटा गीला होना–विपत्ति में और विपत्ति आना।
श्री गुप्ता की पहले तो नौकरी छूट गई और उसके बाद उनके घर में चोरी हो गई। वास्तव में कंगाली में आटा गीला होना इसे ही कहते हैं।

83. कन्धे से कन्धा मिलाना–सहयोग देना।
देश पर विपत्ति के समय प्रत्येक नागरिक को कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करना चाहिए, जिससे दुश्मन हमारा कुछ भी नं बिगाड़ सके।

84. कच्चा चिट्ठा खोलना—गुप्त भेद खोलना।
आपात्कालीन स्थिति ने बड़े-बड़े सफेदपोशों का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया।

85. कमर टूटना–हिम्मत पस्त होना।
पहले तो रमेश के पिताजी का स्वर्गवास हो गया और अब व्यापार में हानि होने से उसकी कमर टूट गई।

86. कलाम तोड़ना–अत्यन्त अनूठा, मार्मिक या हृदयस्पर्शी वर्णन करना।
स्वामीजी के भक्त पत्रकारों ने उनकी प्रशंसा में कलम तोड़कर रख दी।

87. कलेजा छलनी होना-कड़ी बात से जी दुःखना।
अपनी सौतेली माँ के व्यंग्य-बाणों से दीपक का कलेजा छलनी हो गया है।

88. कलेजा थामना-दु:ख सहने के लिए हृदय को कड़ा करना।
परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने पर मोहन अपना कलेजा थामकर रह गया।

89. कलेजा धक-धक करना-भयभीत होना।
घने जंगल में घूमते समय हम सभी के कलेजे धक-धक कर रहे थे।

90. कलेजा निकालकर रख देना-सर्वस्व दे देना।
यदि सौतेली माँ अपना कलेजा निकालकर रख दे तो भी बहुत कम व्यक्ति उसकी प्रशंसा करेंगे।

91. कलेजा मुँह को आना-अत्यधिक व्याकुल होना।
अपने मित्र के स्वर्गवास का समाचार सुनकर मोहन को ऐसा लगा जैसे उसका कलेजा मुँह को आ गया हो।

92. कलेजे पर पत्थर रखना-धैर्य धारण करना।
पुत्र की मृत्यु का दुःख उसने कलेजे पर पत्थर रखकर सहन किया।

93. कसाई के खूटे से बाँधना-निर्दयी व्यक्ति को सौंपना।
रमेश से विवाह के बाद शीला बहुत दुःखी है। यदि हमें पता होता तो हम उसे कसाई के खुंटे से कभी नहीं बाँधते।

94. काँटों पर लोटना-ईर्ष्या से जलना, बेचैन होना।
मोहन ने सुना कि रमेश नई कार लाया है। इस समाचार से मोहन की बेचैनी बढ़ गई, तभी किसी ने कहा कि व्यर्थ काँटों पर क्यों लोटते हो।

95. कागज काला करना-व्यर्थ ही कुछ लिखना।
तुम्हारी रचनाओं को कोई भी तो पसन्द नहीं करता, व्यर्थ ही कागज काला करने से क्या लाभ है?

96. कागजी घोड़े दौड़ाना-कोरी कागजी कार्यवाही करना।
किसी भी योजना की ठोस रूपरेखा बनाए बिना केवल कागजी घोड़े दौड़ाने से समस्या हल नहीं हो सकती।

97. काठ का उल्लू होना-मूर्ख होना।
उससे बात करना बिल्कुल व्यर्थ है। वह तो निरा काठ का उल्लू है।

98. कान काटना-मात देना, बढ़कर होना।
भाषण प्रतियोगिता में छोटी कक्षा के छात्र ने बड़ी कक्षा के छात्र के कान काट लिए।

99. कान का कच्चा होना—बिना सोचे-विचारे दूसरों की बातों पर विश्वास करना।
कान का कच्चा व्यक्ति अच्छा राजा या कुशल प्रशासक नहीं हो सकता।

100. कान खड़े होना-सचेत होना।
अपने सम्बन्ध में बात होते देखकर उसके कान खड़े हो गए।

101. कान खाना-निरन्तर बातें करके परेशान करना।
यद्यपि उस समय उसकी बात सुनने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी, तथापि उसने मेरे कान खाकर मुझे परेशान कर दिया।

102. कान पर जूं न रेंगना-~-बार-बार कहने पर भी प्रभाव न होना।
अब अनुत्तीर्ण हो जाने पर क्यों रोते हो? जब मैं पढ़ने के लिए बार-बार कहता था, तब तुम्हारे कानों पर जूं भी न रेंगती थी।

103. कान भरना-चुगली करना।
मोहन ने सोहन से कहा कि आज साहब नाराज हैं, किसी ने उनके कान भरे हैं।

104. काया पलट देना-स्वरूप में आमूल परिवर्तन कर देना।
आपास्थिति ने तो देश की काया ही पलट दी।

105. काला अक्षर भैंस बराबर—बिल्कुल अनपढ़।
संगीत के विषय में मेरी स्थिति काला अक्षर भैंस बराबर है।

106. कीचड़ उछालना-लांछन लगाना।
कुछ लोगों को दूसरों पर कीचड़ उछालने में मजा आता है।

107. कुएँ में भाँग पड़ना-सम्पूर्ण समूह परिवार. का दूषित प्रवृत्ति का होना।
जब घर से भागकर प्रेम-विवाह करनेवाली साधना की दूसरी बेटी भी घर से भाग गई तो सभी सुननेवालों ने यही कहा कि वहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी है।

108. कुएँ में बाँस डालना-बहुत तलाश करना।
कई दिन से कुएँ में बाँस डाल रखे हैं, किन्तु उनका मिलना तो दूर उनका कोई समाचार भी नहीं मिला है।

109. कुत्ते की मौत मरना-बुरी तरह मरना।
तस्कर व डाकू जब पुलिस के चंगुल में पड़ जाते हैं तो कुत्ते की मौत मारे जाते हैं।

110. कूप-मण्डूक होना-संकुचित विचारवाला होना।
समुद्र पार करने का निषेध करके हमारे पुरखों ने हमें कूप-मण्डूक बना रहने दिया।

111. कोयले की दलाली में हाथ काले-कुसंगति से कलंक अवश्य लगता है।
अपने मातहत दो बाबुओं को रंगे हाथ रिश्वत लेते पकड़े जाने के आरोप में अजब सिंह को भी उनके पद से हटा दिया गया। आखिर कोयले की दलाली में हाथ काले होते ही हैं।

112. कोल्हू का बैल-अत्यन्त परिश्रमी।
मजदूर रात-दिन कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहने पर भी भरपेट रोटी प्राप्त नहीं कर पाते।

113. खटाई में डालना-उलझन पैदा करना।
मेरे मामले का निर्णय अभी तक नहीं हुआ, लिपिक महोदय ने जान-बूझकर उसे खटाई में डाल दिया है।

114. खरी-खोटी सुनाना-फटकारना।
अध्यापक द्वारा खरी-खोटी सुनाने पर भी निर्लज्ज छात्र पर कोई प्रभाव न पड़ा।

115. खरी मजूरी चोखा काम–अच्छी मजदूरी लेनेवाले से अच्छे काम की ही अपेक्षा की जाती है।
रोजगार की तलाश में शहर जाते बेटे को समझाते हुए पिता ने कहा कि छोटे शहर में खरी मजूरी चोखा काम चाहनेवालों की कमी नहीं है।

116. खाक छानना-भटकना।
मेरा शोध-विषय इतना जटिल है कि इसके लिए मुझे दर-दर की खाक छाननी पड़ रही है।

117. खाक में मिलाना-नष्ट करना।
अयोग्य सन्तान अपने पिता की इज्जत को तनिक-सी देर में खाक में मिला देती है।

118. खून का प्यासा होना-जानी दुश्मन होना।
जब सरदार भगतसिंह ने लाला लाजपतराय की मृत्यु का समाचार सुना तो वे अंग्रेजों के खून के प्यासे हो गए।

119. खून सूख जाना—भयभीत होना।
रमेश अपने पिता से बिना कहे सिनेमा देखने चला गया। सिनेमाहाल पर अचानक अपने पिता को देखकर उसका खून सूख गया।

120. खून सफेद होना—उत्साह का समाप्त हो जाना, बहुत डर जाना।
अपने सामने एक बहुत ही भयानक चेहरे के व्यक्ति को खड़ा देखकर मानो उसका खून सफेद हो गया।

121. खून-पसीना एक करना-कठोर परिश्रम करना।
मुकेश ने परीक्षा में सफलता पाने के लिए खून-पसीना एक कर दिया।

122. खेल खिलाना-प्रतिपक्षी को समय देना।
राम ने रावण को मारने से पूर्व युद्ध के मैदान में उसे तरह-तरह से खेल खिलाए।

123. खेत रहना-लड़ाई में मारा जाना।
भारत और चीन के युद्ध में शत्रुओं के कई हजार सैनिक खेत रहे।

124. गड़े मुर्दे उखाड़ना-बहुत पुरानी बात दोहराना।
गड़े मुर्दे उखाड़ने से किसी समस्या का हल नहीं मिलता। वस्तुतः हमें वर्तमान सन्दर्भ में ही समस्या का समाधान खोजना चाहिए।

125. गागर में सागर भरना-थोड़े शब्दों में अधिक बात कहना।
बिहारी ने अपनी सतसई के दोहों में बड़े-बड़े अर्थ रखकर गागर में सागर भरने की बात को चरितार्थ किया।

126. गाल बजाना-डींग मारना।
केवल गाल बजाने से सफलता नहीं मिल सकती, इसके लिए परिश्रम भी परम आवश्यक है।

127. गुड़-गोबर करना—काम बिगाड़ना।
कवि-सम्मेलन बड़े आनन्द से चल रहा था, श्रोता रसमग्न होकर कविताएँ सुन रहे थे कि अचानक आई तेज वर्षा ने सारा गुड़-गोबर कर दिया।

128. गूलर का फूल होना-अलभ्य वस्तु होना।
आज के युग में ईमानदारी गूलर का फूल हो गई है।

129. घड़ों पानी पड़ना-दूसरों के सामने हीन सिद्ध होने पर अत्यन्त लज्जित होना।
बहू ने जब सास का झूठ सबके सामने पकड़ लिया तो उस पर घड़ों पानी पड़ गया।

130. घर का दीपक-घर की शोभा और कुल की कीर्ति को बढ़ानेवाला।
एकमात्र पुत्र की मृत्यु पर संवेदना व्यक्त करने आए प्रत्येक व्यक्ति ने यही कहा कि उनके घर का तो दीपक ही बुझ गया।

131. घर की खेती सहज में मिलनेवाला पदार्थ।
बाल काट देने पर इतना क्यों रोते हो? यह तो घर की खेती है। कुछ दिन में फिर बढ़ जाएगी।

132. घर फूंक तमाशा देखना-क्षणिक आनन्द के लिए बहुत अधिक खर्च करना।
सेठ भोलामल का बड़ा लड़का शराब व जुए में सम्पत्ति नष्ट करके घर फूंक तमाशा देख रहा है।

133. घाट-घाट का पानी पीना–अनेक स्थलों का अच्छा-बुरा अनुभव प्राप्त करना/चालाक होना।
जिसने घाट-घाट का पानी पिया हो, उसे जीवन में कौन धोखा दे सकता है।

134. घाव पर नमक छिड़कना-दु:खी व्यक्ति के हृदय को और दुःख पहुँचाना।
परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने पर रमेश वैसे ही दु:खी है। अब अपशब्द कहकर आप उसके घाव पर नमक छिड़क रहे हैं।

135. घाव हरा होना-भूले दुःख की याद आना।
मैं तो अपना दुःख भूल चुका था, किन्तु आज आपको वैसे ही कष्ट में देखकर मेरा घाव हरा हो गया।

136. घी के दीये जलाना-खुशी मनाना।
अपने प्रतिद्वन्द्वी की हार पर सुनील ने घी के दीये जलाए।

137. घोड़े बेचकर सोना निश्चिन्त होना।
किशन परीक्षा समाप्त होते ही घोड़े बेचकर सोता है।

138. चम्पत होना-भाग जाना।
सिपाही को देखते ही चोर वहाँ से चम्पत हो गया।

139. चाँद पर थूकना-निर्दोष को दोष देना।
आप सत्यता के साथ अपने कार्य को कीजिए। आप पर दोष लगानेवाले स्वयं चुप हो जाएँगे। चाँद पर थूकने से उसका कुछ बिगड़ता नहीं है।

140. चूना लगाना-हानि पहुँचाना।
उसने मुझे रिश्तेदारी का हवाला दिया और मैं पिघल गया। बेबात में उसने मुझे सौ रुपये का चूना लगा दिया।

141. चाँदी काटना- अधिक लाभ प्राप्त करना।
आपास्थिति से पूर्व काले धन्धे में लगे व्यक्ति कृत्रिम कमी उत्पन्न करके चाँदी काट रहे थे। अब सभी के होश ठिकाने आ गए हैं।

142. चिकना घड़ा होना-निर्लज्ज होना। वह पूरा चिकना घड़ा है। उस पर आपकी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

143. चिकनी-चुपड़ी बातें करना-चालबाजी से भरी मीठी बातें करना। उसकी बातों में न आना।
वह चिकनी-चुपड़ी बातें करके अपना मतलब सिद्ध करने में बड़ा चतुर है।

144. चुल्लूभर पानी में डूब मरना-अपने गलत काम के लिए लज्जा का अनुभव करना।
रमेश ने अपनी बहन की सम्पत्ति पर भी कब्जा करने की कोशिश की। जब सम्बन्धियों को पता चला तो उन्होंने उससे कहा कि जाओ, चुल्लूभर पानी में डूब मरो।।

145. चेहरे पर हवाइयाँ उड़ना-घबराहट आदि के कारण चेहरे का रंग उड़ जाना।
शहर में दंगा होने की खबर सुनकर शहर में नई आई मेघना के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।

146. चोर की दाढ़ी में तिनका वास्तविक अपराधी का बिना पूछे बोल उठना।
छात्रों ने श्यामपट पर एक कार्टून बना दिया था। अध्यापक ने उसके सम्बन्ध में छात्रों से पूछा। इसी बीच एक छात्र खड़ा होकर कहने लगा कि यह कार्टून मैंने नहीं बनाया। सब छात्र कहने लगे- “चोर की दाढ़ी में तिनका।”

147. चोली-दामन का साथ होना-घनिष्ठ अथवा अटूट सम्बन्ध।
पन्ना रूपवती स्त्री थी और रूप तथा गर्व में चोली-दामन का नाता था।

148. छक्के छुड़ाना-हिम्मत पस्त कर देना।
व्यापारमण्डल ने मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करके मेरे विरोधियों के छक्के छुड़ा दिए।

149. छठी का दूध याद आना-घोर संकट में फँसना।
अचानक आए तूफान ने पर्वतारोहियों को छठी का दूध याद दिला दिया।

150. छठी का दूध याद कराना-बहुत अधिक कष्ट देना।
सतपाल ने अखाड़े में बड़े-बड़े पहलवानों को भी छठी का दूध याद करा दिया।

151. छाती पर मूंग दलना-अत्यन्त कष्ट देना।
माँ ने नाराज होकर बच्चों से कहा कि मेरी छाती पर ही मूंग दलते रहोगे या कुछ पढ़ोगे-लिखोगे भी।

152. छाती पर पत्थर रखना-दुःख सहने के लिए हृदय कठोर करना।
अपनी छाती पर पत्थर रखकर उसने अपना पुश्तैनी मकान भी बेच दिया।

153. छाती/कलेजे पर साँप लोटना-ईर्ष्या से हृदय जल उठना।
किसी की उन्नति की चर्चा सुनकर उसकी छाती पर साँप लोटने लगते हैं।

164. जमीन पर पैर न रखना-बहुत अभिमान करना।
प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने के बाद उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं।

155. जहर उगलना-कठोर, जली-कटी, लगनेवाली बात कहना।
उन्हें जब देखो, तब जहर उगलते रहते हैं। उन्हें किसी की उन्नति तनिक भी नहीं सुहाती।

156. जली-कटी कहना-व्यंग्यपूर्ण बात करना।
जब देखो जली-कटी कहते रहते हो। कभी तो प्रेम के साथ बोला करो।

157. जहाज का पंछी होना—ऐसी मजबूरी होना, जिससे वही आश्रय लेने के लिए बाध्य होना पड़े।
बहुत ढूँढने पर भी मुझे कहीं स्थान नहीं मिला। जहाज के पंछी की तरह मैं फिर लौटकर वहीं आ गया।

158. जी-जान लड़ाना-बहुत परिश्रम करना।
हमने तो कार्यक्रम की सफलता के लिए जी-जान लड़ा दी, किन्तु उन्हें कोई बात पसन्द ही नहीं आती।

159. जीती मक्खी निगलना-अहित की बात स्वीकार करना।
मोहना को भली प्रकार ज्ञात था कि घर और वर दोनों उसके अनुरूप नहीं हैं, फिर भी माता-पिता की विवशता देखकर उसने जीती मक्खी को निगल लिया।

160. जोड़-तोड़ करना–दाँव-पेंचयुक्त उपाय करना।
किसी भी तरह जोड़-तोड़ करके रमेश उत्तीर्ण हो ही गया।

161. झख मारना-व्यर्थ समय गँवाना/विवश होना।
i. तुम कब से बैठे झख मार रहे हो, जाकर स्नान क्यों नहीं करते?
ii. झख मारकर उसे रुपया देना ही पड़ा।

162. टस से मस न होना—विचलित न होना।
कितनी ही विपत्तियाँ आईं, किन्तु रमेश टस से मस नहीं हुआ। अन्ततः जीत उसी की हुई।

163. टका-सा जवाब देना-साफ इनकार करना।
मैंने कितनी ही बार उसकी सहायता की, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उसने मुझे टका-सा जवाब देने में तनिक भी संकोच नहीं किया।

164. टपक पड़ना-सहसा बिना बुलाए आ पहुँचना।।
अरे! अभी तुम्हारी ही बात हो रही थी, तुम एकदम कहाँ से टपक पड़े?

165. टाँग अड़ाना-दखल देना।
उसे कुछ आता-जाता तो है नहीं, किन्तु टाँग हर बात में अड़ाता रहता है।

166. टाट उलटना-दिवालिया होने की सूचना देना।
लोगों ने समय-समय पर उसकी बहुत आर्थिक मदद की, किन्तु जब लोगों ने अपनी रकम उससे माँगी तो उसने टाट उलट दिया।

167. टेढ़ी खीर-कठिन कार्य।
परीक्षा में प्रथम श्रेणी के अंक प्राप्त करना टेढ़ी खीर है।

168. टोपी उछालना-इज्जत से खिलवाड़ करना।
कैसे भी प्रिय व्यक्ति को कोई अपनी टोपी उछालने की इजाजत नहीं दे सकता।

169. ठकुरसुहाती करना/कहना-चापलूसी करना।
स्वाभिमानी व्यक्ति भूखा मर जाता है, किन्तु ठकुरसुहाती नहीं करता।

170. ठगा-सा रह जाना—चकित रह जाना।
साईं बाबा के चमत्कार देखकर मैं ठगा-सा रह गया।

171. ठिकाने लगाना-मार डालना।
तुम्हारा मामला है, वरना उस दुष्ट को मैं कब का ठिकाने लगा देता।

172. ठोकर खाना-असावधानी के कारण नुकसान उठाना।
रमेश हमेशा सुरेश को समझाता रहता था कि यदि बुरी राह चलोगे तो ठोकर खाओगे, लेकिन सुरेश न माना।

173. डूबते को तिनके का सहारा-संकट में छोटी वस्तु से भी सहायता मिलना।
भूख के कारण उसके प्राण निकले जा रहे थे। तभी किसी ने उसे एक रोटी देकर मानो डूबते को तिनके का सहारा दिया।

174. ढाई ईंट की मस्जिद अलग बनाना-सार्वजनिक मत के विरुद्ध कार्य करना।
उससे हमारी मित्रता सम्भव नहीं है। वह सदैव ढाई ईंट की मस्जिद अलग बनाता रहता है।

175. ढिंढोरा पीटना-बात का खुलेआम प्रचार करना।
रमा के पेट में कोई बात नहीं पचती, वह तुरन्त बात का ढिंढोरा पीट देती है।

176. ढोल की पोल/ढोल के भीतर पोल—बाहरी दिखावे के पीछे छिपा खोखलापन।
ये स्वामी लोग व्याख्यान तो बहुत सुन्दर देते हैं, परन्तु उनके जीवन को निकट से देखने पर पता चलता है कि ढोल के भीतर भी पोल है।

177. तकदीर फूट जाना—भाग्यहीन होना।
युवावस्था में विधवा होने पर स्त्री की तो मानो तकदीर ही फूट जाती है।

178. तलवे चाटना-खुशामद करना। रमेश में तनिक भी स्वाभिमान नहीं है।
वह सदैव अपने अधिकारी के तलवे चाटता रहता है।

179. तिल का ताड़ करना/बनाना-छोटी-सी बात को बड़ी बनाना।
बात तो बहुत छोटी-सी थी, किन्तु उन्होंने तिल का ताड़ करके आपस में झगड़ा करा दिया।

180. तीन-तेरह करना-गायब करना, तितर-बितर करना।
छापा पड़ने से पहले ही लालाजी ने अपने सारे कागजों को तीन-तेरह कर दिया।

181. तीन-पाँच करना-बहाना बनाना, इधर-उधर की बात करना।
सच-सच बताओ कि बात क्या है? तीन-पाँच करोगे तो अच्छा न होगा।

182. तोते के समान रहना-बात के सार को समझे बिना उसे रट लेना।
वर्तमान शिक्षा-प्रणाली छात्रों को केवल तोते के समान रटना सिखाती है।

183. थाली का बैंगन होना-पक्ष बदलते रहना।
उसकी बात पर कोई विश्वास नहीं करता। वह तो थाली का बैंगन है। कभी इस ओर हो जाता है और कभी उस ओर।

184. थूककर चाटना-त्यक्त वस्तु को पुनः ग्रहण करना, कही हुई बात पर अमल न करना।
पहले तो आवेश में तुमने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। अब उसके लिए पुनः आवेदन-पत्र देकर थूककर चाटते क्यों हो?

185. दंग रह जाना—आश्चर्यचकित होना।
बाबा के चमत्कारों को देखकर मैं तो दंग रह गया।

186. दाँत खट्टे करना-हरा देना।
भारतीय सैनिकों ने कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी सैनिकों के दाँत खट्टे कर दिए।

187. दाँत पीसकर रह जाना-क्रोध रोक लेना।
रमेश की बदतमीजी पर पिताजी को क्रोध तो बहुत आया, किन्तु अपने मित्रों के सामने वे दाँत पीसकर। रह गए।

188. दाँतों तले उँगली दबाना-आश्चर्यचकित होना।
महारानी लक्ष्मीबाई के रणकौशल को देखकर अंग्रेजों ने दाँतों तले उँगली दबा ली।

189. दाने-दाने को तरसना-भूखों मरना।
जिन लोगों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया, उनके बच्चे आज दाने-दाने को तरस रहे हैं।

190. दाल न गलना-युक्ति में सफल न होना।
जब अधिकारी के सामने लिपिक की दाल न गली तो वह निराश होकर लौट आया।

191. दाल में काला होना-दोष छिपे होने का सन्देह होना।
पड़ोसी के घर पुलिस को आया देखकर पिता ने पुत्र से कहा-मुझे तो दाल में कुछ काला लगता है।

192. दिल बाग-बाग होना अत्यधिक प्रसन्न होना।
आपके घर की सजावट देखकर मेरा दिल बाग-बाग हो गया।

193. दिल भर आना-दुःखी होना।
जाड़े की रात में भिखारिन और उसके बच्चे को ठिठुरते हुए देखकर मेरा दिल भर आया।

194. दूध का दूध पानी का पानी-सही और उचित न्याय।।
विक्रमादित्य के राज्य में प्रजा सब प्रकार से सन्तुष्ट थी; क्योंकि उनके यहाँ दूध का दूध पानी का पानी किया जाता था।

195. दूध की नदियाँ बहाना-दूध का जरूरत से अधिक उत्पादन करना/धन-धान्य से परिपूर्ण होना।
श्वेत क्रान्ति भी देश में दूध की नदियाँ न बहा सकी।

196. दूध की मक्खी की तरह निकाल देना-अवांछित, अनुपयोगी व्यक्ति को व्यवस्था से अलग करना।
रामसिंह ने लालाजी की जीवनभर सेवा की, किन्तु उन्होंने बुढ़ापे में उसे दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया।

197. दुम दबाकर चल देना-डरकर हट जाना। पुलिस की ललकार सुनकर चोर दुम दबाकर भाग गए।

198. देवता कूच कर जाना—अत्यन्त भयभीत हो जाना, होश गायब हो जाना।
जंगल में अचानक सिंह को अपने सामने देखकर मनमोहन के तो देवता कूच कर गए।

199. दो नावों पर पैर रखना-दो अलग-अलग पक्षों से मिलकर रहना।
जो व्यक्ति दो नावों पर पैर रखकर चलते हैं, वे ठीक मझधार में डूबते हैं।

200. दो टूक बात कहना–स्पष्ट कहना। मोहन किसी से भी नहीं डरता।
वह हर व्यक्ति के सामने उचित बात को दो टूक कह देता है।

201. दो दिन का मेहमान होना-थोड़े दिन रहना।
वकील साहब का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। वे अब दो दिन के मेहमान हैं। इसलिए सब मिलकर उनकी सेवा करें।

202. धूप में बाल सफेद नहीं होना-अनुभवी होना।
तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते, मेरे बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं।

203. नकेल हाथ में होना-नियन्त्रण अपने हाथ में होना।।
चिन्ता न करो, उसकी नकेल मेरे हाथ में है। वह तुम्हारा विरोध नहीं कर सकता।

204. नजर लग जाना—बुरी दृष्टि का प्रभाव पड़ना।
नजर लगने के भय से माताएँ अपने बच्चों के माथे पर दिठौना काजल का टीका. लगा देती हैं।

205. नजर से गिरना-प्रतिष्ठा खो देना।
कुकर्मों के प्रकट होने के बाद प्रवीण सभी की नजरों से गिर गया।

206. नदी-नाव संयोग-आश्रय-आश्रित का सम्बन्ध।
कर्मचारी के हितों के नाम पर यूनियन के नेता फैक्ट्री में तालाबन्दी की बात कर रहे हैं, अब भला कोई उनसे पूछे फैक्ट्री और कर्मचारी में नदी-नाव का संयोग होता है, फिर तालाबन्दी से कर्मचारियों का कल्याण कैसे हो सकता है।

207. नमक-मिर्च लगाना-बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहना।
कुछ लोगों की आदत होती है कि वे हर बात को नमक-मिर्च लगाकर ही कहते हैं।

208. नमकहरामी करना-कृतघ्नता करना।
यदि कोई व्यक्ति हमारी भलाई करता है तो हमें उसका कृतज्ञ होना चाहिए, किन्तु बहुत-से व्यक्ति सरासर नमकहरामी करते हैं।

209. नहले पे दहला चलना-अकाट्य दाँव चलना।
बड़ी संख्या में सवर्णों को विधानसभा-टिकट देकर सुश्री मायावती ने ऐसा नहले पे दहला चला कि उन पर दलित राजनीति करने का आरोप लगानेवाले चारों खाने चित्त हो गए।

210. नाक कटना-बेइज्जती होना।
बेटे के चोरी करते पकड़े जाने पर निखिल के पिता की नाक कट गई।

211. नाक कटने से बचाना-बेइज्जत होने से बचाना।
माता-पिता बच्चों के अन्तर्जातीय विवाह सम्बन्धों को सहज रूप में स्वीकार करके ही अपनी नाक कटने से बचा सकते हैं।

212. नाक का बाल-अत्यन्त अन्तरंग, प्रिय।
अपनी नाक का बाल बने घोटाले में फँसे विधायक को पार्टी से कैसे निकालें, मुख्यमन्त्री के सामने अब यह एक बड़ी समस्या है।

213. नाक नीची कराना–बेइज्जती कराना।
अखिल ने कार चोरी का कार्य करके समाज में अपने पिता की नाक नीची करा दी।

214. नाक बचाना-इज्जत बचाना।
आजकल के बच्चे अपने माँ-बाप की नाक बचाए रखें, यही उनकी सबसे बड़ी सेवा और भक्ति है।

215. नाक रगड़ना-किसी बात के लिए अत्यधिक खुशामद और क्षमा-याचना करना।
रावण ने हनुमान् से कहा कि राम आकर मेरे चरणों में अपनी नाक रगड़े तो वह सीता को वापस कर देगा।

216. नाक रख लेना-इज्जत रख लेना।
मुकेश ने अपने बड़े भाई की बात मानकर उनकी नाक रख ली।

217. नाकों चने चबाना-बहुत तंग करना।
अगर हम और कहीं होते तो लोगों को नाकों चने चबवा देते।

218. नौ-दो-ग्यारह होना—गायब हो जाना।
पुलिस को आता देखकर गिरहकट नौ-दो-ग्यारह हो गए।

219. पगड़ी उछालना-बेइज्जती करना।
किसी इज्जतदार आदमी की पगड़ी उछालना इंसानियत की बात नहीं है।

220. पत्ता काटना-मामले या पद से हटा देना।
अपने मण्डल दौरे पर आई मुख्यमन्त्री ने सभी दोषी अधिकारियों का पत्ता काट दिया।

221. पत्थर की लकीर-अमिट बात।
महापुरुषों की बातें पत्थर की लकीर के समान अटल होती हैं।

222. पर्दा डालना-दुर्गुणों को छिपाना।
बच्चे तभी बिगड़ते हैं, जब माँ-बाप उनकी गलतियों पर पर्दा डालते हैं।

223. पसीना-पसीना होना-पसीने से तर-ब-तर होना।
भयंकर गर्मी में कार्य करते हुए मजदूर पसीना-पसीना हो गया।

224. पहाड़ टूट पड़ना—मुसीबतें आना।
राम के पिता की मृत्यु से उसके परिवार पर मानो पहाड़ टूट पड़ा।

225. पाँचों उँगली घी में होना-आनन्द-ही-आनन्द होना।
दीपक की मम्मी के आ जाने पर आजकल उसकी पाँचों उँगली घी में हैं।

226. पानी उतर जाना-इज्जत समाप्त हो जाना।
रमेश की चोरी पकड़े जाने के बाद से जनता की निगाह में उसका पानी उतर गया।

227. पानी-पानी होना–शर्मिन्दगी अनुभव होना।
दरवाजे की खटखटाहट सुनकर अंशु भीतर से ही बड़बड़ाती आई कि इन भिखारियों ने भी नाक में दम कर रखा है, किन्तु दरवाजे पर अपने ससुर को खड़ा देखकर बेचारी पानी-पानी हो गई।

228. पानी फेर देना—निराश कर देना।
अनमोल ने विद्यालय छोड़कर अपने पिता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया।

229. पापड़ बेलना–कष्ट झेलना।
राम को नौकरी प्राप्त करने के लिए बड़े पापड़ बेलने पड़े।

230. पीठ दिखाना-हारकर भाग जाना।
भारतीय सेना के सम्मुख पाकिस्तानी सिपाही पीठ दिखाकर भाग गए।

231. पेट में दाढ़ी होना—कम अवस्था में ही अधिक बुद्धिमान्/चतुर-चालाक होना।
श्याम की आयु केवल पन्द्रह साल की है, किन्तु वह अपने चाचा से राजनीति की चर्चा कर रहा था। यह देखकर वहाँ बैठे एक व्यक्ति ने कहा कि इस लड़के के पेट में तो दाढ़ी है।

232. पौ बारह होना-खूब लाभ प्राप्त होना।
आपात्काल से पहले गल्ला-व्यापारियों के पौ बारह हो रहे थे।

233. प्यासा ही कुएँ के पास जाता है—जरूरतमन्द ही अपनी जरूरत की वस्तु के स्रोत को ढूँढता हुआ उस तक पहुँचता है।
बेटा! बाजार में एक से बढ़कर एक पुस्तक उपलब्ध है; वहाँ जाना तो पड़ेगा ही; क्योंकि प्यासा ही कुएँ के पास जाता है, कुआँ स्वयं चलकर उसके पास नहीं आता।

234. प्राण हथेली पर रखना-मृत्यु के लिए तैयार रहना।
भारतीय सैनिक प्राण हथेली पर रखकर अपने शत्रुओं का सामना करते हैं।

235. फुलझड़ी छोड़ना-हँसी की बात कहना।
तुम तो बात-बात में फुलझड़ी छोड़ते हो। कभी तो गम्भीरता से बात किया करो।

236. फूटी आँखों न देखना-ईर्ष्या रखना।
अधिकतर विमाताएँ अपने सौतेले पुत्र को फूटी आँखों नहीं देख सकतीं।

237. फूला न समाना-अत्यधिक प्रसन्न होना।
अपनी प्यारी बहन मीरा के मिलने पर विमल फूला नहीं समाया।

238. बगुलाभगत होना–साधु के वेश में ठग, पाखण्डी।
आजकल अनेक लोग गेरुए वस्त्र धारण करके बगुलाभगत बने बैठे हैं।

239. बगलें झाँकना-निरुत्तर होना।
अध्यापक के प्रश्न को सुनकर तथा उत्तर समझ में न आने पर छात्रगण बगलें झाँकने लगे।

240. बाँछे खिल जाना—प्रसन्नता से भर उठना।।
अपनी प्रोन्नति का समाचार सुनकर शशांक की बाँछे खिल गईं।

241. बाल की खाल निकालना–बारीकी से जाँच-पड़ताल करना।
मोहन का स्वभाव ऐसा ही है कि वह हर बात में बाल की खाल निकालता है।

242. बाल-बाँका न होना-कुछ भी हानि न पहुँचना।
इस मुकदमे में तुम चाहे कितना ही धन व्यय करो, किन्तु उनका बाल-बाँका नहीं हो सकता।

243. बालू की दीवार-दुर्बल आधार।
बालू की दीवार पर जीवन का महल बनाना उचित नहीं है।

244. बिजली गिरना-घोर विपत्ति आना।
सरला के जवान बेटे की मौत क्या हुई, उस पर तो मानो बिजली गिर गई।

245. बीड़ा उठाना-कोई जोखिम भरा काम करने की जिम्मेदारी लेना।
फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने युद्ध-क्षेत्र में घायलों की सेवा का बीड़ा उठाया।

246. बे-पर की उड़ाना-झूठी बात फैलाना।
यद्यपि मीनू का परीक्षाफल नहीं आया था, किन्तु उसने अपनी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की घोषणा करके बे-पर की उड़ा दी।

247. बे-सिर-पैर की बात करना—निरर्थक बात करना।
उन्हें काम तो कुछ है नहीं, हर समय बे-सिर-पैर की बात करते हैं।

248. बोटी-बोटी फड़कना-जोश आना।
कवि-सम्मेलन में वीर रस की कविताओं को सुनकर श्रोताओं की बोटी-बोटी फड़कने लगी।

249. भण्डा फूटना-भेद खुल जाना, रहस्य प्रकट हो जाना।
जनसभा में जब नेताजी के भ्रष्टाचार का भण्डा फूट गया तो वे चुपचाप ही वहाँ से खिसक लिए।

250. भीगी बिल्ली बनना-भय या स्वार्थवश अति नम्र होना।
घर पर रहकर मूंछों पर ताव देनेवाले मुरलीधर कार्यालय में अपने अधिकारी के सामने भीगी बिल्ली बने रहते हैं।

251. मक्खन लगाना-चापलूसी करना।
अफसरों को मक्खन लगाना कोई शोभित से सीखे, जिसने सालभर में ही प्रोन्नति प्राप्त कर ली।

252. मक्खियाँ मारना-बेकार बैठे रहना।
जब से यहाँ आया हूँ, बैठा-बैठा मक्खियाँ मारा करता हूँ।

253. मन के मोदक खाना-काल्पनिक बातों से प्रसन्न होना।
उनके पास पैसा तो है नहीं, वे मन के मोदक खाकर ही प्रसन्न हो लेते हैं।

254. मन खट्टा हो जाना–मन घृणा से भर जाना।
उधर तो दीपक के पिता की लाश पड़ी थी, इधर उसका छोटा भाई बँटवारे के लिए झगड़ रहा था। यह देखकर उसके प्रति दीपक का मन खट्टा हो गया।

255. मन मारकर बैठना-विवशता के कारण निराश होना।
हामिद के पास तीन पैसे थे, उनसे वह मिठाई कैसे खरीदता। बेचारा, साथियों को मिठाई खाता देख मन मारकर रह गया।

256. मन्त्र फॅकना-सफल युक्ति का प्रयोग करना।
विवेकीजी पता नहीं, अपने छात्रों में ऐसा कौन-सा मन्त्र फूंकते हैं, कि कोई भी छात्र प्रथम श्रेणी से कम उत्तीर्ण ही नहीं होता।

257. मिट्टी के मोल बिकना-अत्यन्त कम मूल्य पर बिकना।
विवश होकर प्रेमचन्दजी को अपने उपन्यास प्रकाशकों के हाथ मिट्टी के मोल बेचने पड़े।

258. मिट्टी में मिलाना–पूरी तरह नष्ट कर देना।
कुपुत्र अपने पूर्वजों के यश को मिट्टी में मिला देते हैं।

259. मुँह पर कालिख लगना-कलंक लगना।
चन्दर के बेटे के चोरी के अपराध में रंगे हाथों पकड़े जाने पर उसके मुँह पर कालिख लग गई।

260. मुँह की खाना-परास्त होना, अपमानित होना।
सतपाल से बड़े-बड़े पहलवानों ने मुँह की खाई।

261. मुँह में पानी भर आना-जी ललचाना।
मिठाइयों का नाम सुनते ही उसके मुँह में पानी भर आया।

262. मुट्ठी गर्म करना-रिश्वत देना।
लिपिक की मुट्ठी गर्म करने पर ही लाभचन्द को चीनी का परमिट मिल सका।

263. मँखें नीची हो जाना-अपमानित होना।
बेटी के साँवले दूल्हे से शादी करने से इनकार कर देने पर चौधरी की मूंछे नीची हो गईं।

264. मूंछों पर ताव देना-शक्ति पर घमण्ड करना।
रमेश के पिता एक बाहुबली सांसद हैं; अत: वह मूंछों पर ताव दिए फिरता है।

265. मैदान मारना-सफलता/जीत प्राप्त करना।
राजेन्द्र अग्रवाल चुनाव का मैदान मारकर संसद पहुँच ही गए हैं।

266. रंग उतरना-रौनक खत्म होना।
जब से मेले में दो गुटों में झगड़ा हुआ है, मेले का रंग ही उतर गया है।

267. रंग जमाना-धाक जमाना।
किसी समय फिल्मी दुनिया में अमिताभ बच्चन ने अपना रंग जमा रखा था।

268. रंग में भंग पड़ना-आनन्द में विघ्न होना।
सिनेमाहाल में झगड़ा होने पर दर्शकों के रंग में भंग पड़ गया।

269. राई से पर्वत करना-छोटी बात को बहुत बढ़ा देना।
साम्प्रदायिक दंगों के समय समाज-विरोधी तत्त्व राई-जैसी बातों को पर्वत बनाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति करते हैं।

270. रास्ते का काँटा बनना-मार्ग में बाधा डालना।
देश की प्रगति के रास्ते में काँटा बननेवालों को समाप्त कर देना चाहिए।

271. रोंगटे खड़े होना-भयभीत होना, हर्ष/आश्चर्य से पुलकित होना।
अनियन्त्रित बस जब पहाड़ी के किनारे एक पेड़ से रुक गई और यात्रियों ने पहाड़ी से नीचे देखा तो खाई की गहराई देखकर उनके रोंगटे खड़े हो गए।

272. लकीर का फकीर होना-पुरानी नीति पर चलना।
आधुनिक विज्ञान के युग में लकीर का फकीर होना समझदारी का प्रमाण नहीं है।

273. लाल-पीला होना क्रोधित होना।
रामू से दूध बिखर जाने पर उसकी माँ उस पर खूब लाल-पीली हुई।

274. लुटिया डुबोना-प्रतिष्ठा नष्ट करना, काम बिगाड़ देना, कलंक लगाना।
उसने तो दस-बारह रुपये का ही नुकसान किया था, तुमने तो लुटिया ही डुबो दी।

275. लोहा लोहे को काटता है-कठोर बनकर ही कठोरता का समाधान किया जा सकता है।
कश्मीरियों ने जब अपनी सुरक्षा के लिए स्वयं हथियार उठाए, तब जाकर वहाँ कुछ शान्ति स्थापित हुई; क्योंकि वे जानते थे कि लोहा ही लोहे को काटता है।

276. लोहा लेना-साहसपूर्वक सामना करना।
हमें अपने शत्रुओं से डटकर लोहा लेना चाहिए।

277. लोहे के चने चबाना-अत्यधिक कठिन काम करना।
किसी भी व्यापार को आरम्भ करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को लोहे के चने चबाने पड़ते हैं, तब कहीं सफलता मिलती है।

278. श्रीगणेश करना-कार्य आरम्भ करना।
इस शुभ कार्य का श्रीगणेश तुरन्त कर देना चाहिए।

279. सफेद झूठ-बिल्कुल झूठ।
उसके प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का समाचार सफेद झूठ है।

280. सिर उठाना–विरोध में खड़े होना, बगावत करना।
भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख कंस जैसे अनेक दुराचारियों ने सिर उठाया, जो उनके द्वारा मार दिए गए।

281. सिर खाना-परेशान करना।
इस समय मैं अपनी परीक्षा की तैयारी में लगा हूँ, बार-बार प्रश्न पूछकर मेरा सिर मत खाओ।

282. सिर खुजलाना-सोच में पड़ जाना, अनिर्णय की स्थिति में होना।
परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के कारण पूछे जाने पर निकेत सिर खुजलाने लगा कि क्या जवाब दे।

283. सितारा चमकना-उन्नति पर होना।।
हमारे वैज्ञानिकों के प्रयत्नों से विज्ञान के क्षेत्र में भी हमारा सितारा चमक रहा है।

284. सिर पर सवार होना-कड़ाई से निगरानी करना।
वह व्यक्ति मेरे काम को बार-बार टालता रहता है। अब तो उसके सिर पर सवार होकर ही काम करवाया जा सकता है।

285. सिर माथे पर चढ़ाना/लेना-सादर स्वीकार करना।
जुम्मन ने भरी पंचायत में खड़े होकर कहा कि मैं पंचों का हुक्म सिर माथे पर चढ़ाऊँगा।

286. सीधी उँगली से घी नहीं निकलता-बेशर्म लोगों से काम कराने के लिए कठोर टेढ़ा. होना ही पड़ता है।
लाख अनुनय-विनय के बाद भी जब सोमनाथ का फंड न मिला तो वह समझ गया कि सीधी उँगली से घी नहीं निकलनेवाला।

287. सीधे मुँह बात न करना-अकड़कर बोलना।
सरकारी कार्यालय के लिपिक सीधे मुँह बात ही नहीं करते।

288. सौ बात की एक बात-सार तत्त्व।
सौ बात की एक बात है कि मैं आज सिनेमा नहीं जा सकता। मुझे जरूरी काम निपटाने हैं।

289. साँप-छछंदर की गति होना-दुविधा में पड़ना।
रावण के प्रस्ताव से मारीच की गति साँप-छडूंदर की-सी हो गई।

290. हथियार डाल देना-हिम्मत हार जाना, समर्पण कर देना।
कलिंग की सेना ने अन्तिम साँस रहने तक अशोक के सामने हथियार नहीं डाले।

291. हवाई किले बनाना/हवा में किले बनाना-काल्पनिक योजनाएँ बनाना।
वह बुद्धि जो हवा में किले बनाती रहती थी, अब इस गुत्थी को भी न सुलझा सकती थी।

292. हवा से बातें करना-बहुत तेज गति से दौड़ना।
चेतक राणा के सवार होते ही हवा से बातें करने लगता था।

293. हाथ मलना-अपनी विवशता व्यक्त करना।
उसने मेरा पर्स छीना और भाग गया। मैंने बहुत शोर मचाया, किन्तु कोई भी सहायता के लिए न आया। अन्त में मैं हाथ मलता रह गया।

294. हाँ में हाँ मिलाना-चापलूसी करना।
स्वार्थी लोग अधिकारियों की हाँ में हाँ मिलाकर अपना काम निकाल लेते हैं।

295. हाथ के तोते उड़ना-अचानक किसी अनिष्ट के कारण स्तब्ध रह जाना।
अपने पुत्र के दुर्घटना में मारे जाने का समाचार सुनकर मानो गिरधर के हाथ के तोते उड़ गए।

296. हाथ पर हाथ रखकर बैठना-निष्प्रयत्न निष्क्रिय. होना।
हाथ पर हाथ रखकर बैठने से तो किसी की समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

297. हाथ-पाँव मारना-प्रयत्न करना।
आप चाहे कितने भी हाथ-पाँव मार लें, किन्तु आपकी समस्या का समाधान बिना सुविधा-शुल्क के नहीं हो सकता।

298. हाथ-पाँव फूलना-भय से घबरा जाना।
डाकुओं को देखकर यात्रियों के हाथ-पाँव फूल गए।

299. हाथ पीले करना-विवाह करना।
कमला अपने पति की मृत्यु के पश्चात् बड़ी मुश्किल से अपनी बेटी के हाथ पीले कर सकी।

300. हाथ को हाथ नहीं सूझना-बहुत अँधेरा होना।
हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा है, वहाँ कैसे जाऊँ?

301. हाथ मलते रह जाना-पश्चात्ताप होना।
पहले तो परिश्रम नहीं किया, अब अनुत्तीर्ण हो जाने पर हाथ मलने से क्या होता है।

302. हिलोरें मारना-तरंगित होना, उत्साहित होना।
समुद्र को हिलोरें मारते देखना सभी को आनन्दित करता है।

303. हुक्का भरना–सेवा करना, जी हुजूरी करना।
साहब ने जब अपने मातहत से अपने विरुद्ध षड्यन्त्र रचने के विषय में पूछा तो वह गिड़गिड़ाकर बोला-साहब हमें तो उम्रभर आपका हुक्का भरना है, भला मैं आपके विरुद्ध षड्यन्त्र की बात सोच भी कैसे सकता हूँ।

304. होश ठिकाने होना-अक्ल ठिकाने होना।
आपात्काल में बड़ी-बड़ों के होश ठिकाने आ गए।

305. होश उड़ जाना—घबरा जाना।
सामने से शेर को आता देखकर शिकारी के होश उड़ गए।

लोकोक्तियाँ और उनके अर्थ – Hindi Loktokis with Meanings

1. अन्त बुरे का बुरा-बुरे का परिणाम बुरा होता है।
2. अन्त भला सो भला-परिणाम अच्छा रहता है तो सब-कुछ अच्छा कहा जाता है।
3. अन्धा क्या चाहे दो आँखें—प्रत्येक व्यक्ति अपनी उपयोगी वस्तु को पाना चाहता है।
4. अन्धी पीसे कुत्ता खाय-परिश्रमी के असावधान रहने पर उसके परिश्रम का फल निकम्मों को मिल जाता है।
5. अन्धे के आगे रोए अपने नैन खोए-जिसमें सहानुभूति की भावना न हो, उसके सामने दुःख-दर्द की बातें करना व्यर्थ है।
6. अन्धों में काना राजा-मूों के समाज में कम ज्ञानवाला भी सम्मानित होता है।
7. अक्ल बड़ी या भैंस-शारीरिक शक्ति की अपेक्षा बुद्धि अधिक बड़ी होती है।
8. अधजल गगरी छलकत जाय-अधूरे ज्ञानवाला व्यक्ति ही अधिक बोलता डींगें हाँकता. है।
9. अपना पैसा खोटा तो परखनेवाले का क्या दोष-अपने अन्दर अवगुण हों तो दूसरे बुरा कहेंगे ही।
10. अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग-सबका अपनी-अपनी अलग बात करना।
11. अपनी करनी पार उतरनी-अपने बुरे कर्मों का फल भुगतना ही होता है।
12. अपने घर पर कुत्ता भी शेर होता है-अपने स्थान पर निर्बल भी अपने को बलवान् प्रकट करता है।
13. अपना हाथ जगन्नाथ-अपना कार्य स्वयं करना।
14. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता-अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता।
15. अशर्फियाँ लुटें और कोयलों पर मुहर-मूल्यवान् वस्तुओं की उपेक्षा करके तुच्छ वस्तुओं की चिन्ता करना।
16. आँख के अन्धे गाँठ के पूरे—मूर्ख और हठी।
17. आँखों के अन्धे, नाम नयनसुख-गुणों के विपरीत नाम होना।।
18. आई मौज फकीर की दिया झोपड़ा फूंक-वह व्यक्ति, जो किसी भी वस्तु से मोह नहीं करता है।
19. आगे कुआँ पीछे खाई—विपत्ति से बचाव का कोई मार्ग न होना।
20. आगे नाथ न पीछे पगहा-कोई भी जिम्मेदारी न होना।

21. आटे के साथ घुन भी पिसता है-अपराधी के साथ निरपराधी भी दण्ड प्राप्त करता है।
22. आधी तज सारी को धाए, आधी मिले न सारी पाए-लालच में सब-कुछ समाप्त हो जाता है।
23. आप भला सो जग भला-अपनी नीयत ठीक होने पर सारा संसार ठीक लगता है।
24. आम के आम गुठलियों के दाम-दुहरा लाभ उठाना।
25. आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास-किसी महान कार्य को करने का लक्ष्य बनाकर भी निम्न स्तर के काम में लग जाना।
26. आसमान से गिरा खजूर पर अटका-एक विपत्ति से छूटकर दूसरी में उलझ जाना।
27. उठी पैंठ आठवें दिन लगती है—एक बार व्यवस्था भंग होने पर उसे पुन: कायम करने में समय लगता है।
28. उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई-निर्लज्ज बन जाने पर किसी की चिन्ता न करना।
29. उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे-अपना दोष स्वीकार न करके उल्टे पूछनेवाले पर आरोप लगाना।
30. ऊधो का लेना न माधो का देना–स्पष्ट व्यवहार करना।
31. एक और एक ग्यारह होना—एकता में शक्ति होती है।
32. एक चुप सौ को हराए-चुप रहनेवाला अच्छा होता है।
33. एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत-स्वास्थ्य का अच्छा रहना सभी सम्पत्तियों से श्रेष्ठ होता है।
34. एक तो करेला, दूसरे नीम चढ़ा-अवगुणी में और अवगुणों का आ जाना।
35. एक तो चोरी दूसरी सीनाजोरी-गलती करने पर भी उसे स्वीकार न करके विवाद करना।
36. एक थैली के चट्टे-बट्टे-सबका एक-सा होना।
37. एक पन्थ दो काज-एक ही उपाय से दो कार्यों का करना।
38. एक हाथ से ताली नहीं बजती-झगड़ा एक ओर से नहीं होता।
39. एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं—एक ही स्थान पर दो विचारधाराएँ नहीं रह सकतीं।
40. एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय-प्रभावशाली एक ही व्यक्ति के प्रसन्न कर लेने पर सबको प्रसन्न करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। सबको प्रसन्न करने के प्रयास में कोई भी प्रसन्न नहीं हो पाता।

41. ओखली में सिर दिया तो मूसलों का क्या डर–कठिन कार्य में उलझकर विपत्तियों से घबराना बेकार है।
42. ओछे की प्रीत बालू की भीत-नीच व्यक्ति का स्नेह रेत की दीवार की तरह अस्थायी क्षणभंगुर. होता है।
43. कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर संयोगवश कभी कोई किसी के काम आता है तो कभी कोई दूसरे के।
44. कभी घी घना, कभी मुट्ठीभर चना, कभी वह भी मना-जो कुछ मिले, उसी से सन्तुष्ट रहना चाहिए।
45. करघा छोड़ तमाशा जाय, नाहक चोट जुलाहा खाय-अपना काम छोड़कर व्यर्थ के झगड़ों में फँसना हानिकर होता है।
46. कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली-दो असमान स्तर की वस्तुओं का मेल नहीं होता।
47. कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा; भानुमती ने कुनबा जोड़ा-इधर-उधर से उल्टे-सीधे प्रमाण एकत्र कर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयत्न करना।
48. कागज की नाव नहीं चलती-बिना किसी ठोस आधार के कोई कार्य नहीं हो सकता।
49. कागा चला हंस की चाल-अयोग्य व्यक्ति का योग्य व्यक्ति जैसा बनने का प्रयत्न करना।
50. काठ की हाँड़ी केवल एक बार चढ़ती है-कपटपूर्ण व्यवहार बार-बार सफल नहीं होता।
51. का बरसा जब कृषि सुखाने-उचित अवसर निकल जाने पर प्रयत्न करने का कोई लाभ नहीं होता।
52. को नृप होउ हमहिं का हानी—राजा चाहे कोई भी हो, प्रजा की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता। प्रजा, प्रजा ही रहती है।
53. खग जाने खग ही की भाषा–एकसमान वातावरण में रहनेवाले अथवा प्रवृत्तिवाले एक-दूसरे की बातों के सार शीघ्र ही समझ लेते हैं।
54. खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है—एक का प्रभाव दूसरे पर पड़ता है।
55. खोदा पहाड़ निकली चुहिया-अधिक परिश्रम करने पर भी मनोवांछित फल न मिलना।
56. गंगा गए गंगादास जमुना गए जमुनादास-देश-काल-वातावरण के अनुसार स्वयं को ढाल लेना।
57. गुड़ न दे, गुड़ जैसी बात तो करे–चाहे कुछ न दे, परन्तु वचन तो मीठे बोले।
58. गुड़ खाए, गुलगुलों से परहेज-किसी वस्तु से दिखावटी परहेज।
69. घर का भेदी लंका ढावै-अपना ही व्यक्ति धोखा देता है।
60. घर का जोगी जोगना,आन गाँव का सिद्ध-गुणवान् व्यक्ति की अपने स्थान पर प्रशंसा नहीं होती।

61. घर की मुर्गी दाल बराबर-घर की वस्तु का महत्त्व नहीं समझा जाता।
62. घर खीर तो बाहर खीर-यदि व्यक्ति अपने घर में सुखी और सन्तुष्ट है तो उसे सब जगह सुख और सन्तुष्टि का अनुभव होता है।
63. घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने-झूठी शान दिखाना।
64. घी कहाँ गिरा, दाल में व्यक्ति का स्वार्थ के लिए पतित होना।
65. घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या-संकोचवश पारिश्रमिक न लेना।
66. घोड़े को लात, आदमी को बात-घोड़े के लिए लात और सच्चे आदमी के लिए बात का आघात असहनीय होता है।
67. चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए-लालची होना।
68. चलती का नाम गाड़ी—जिसका नाम चल जाए वही ठीक।
69. चादर के बाहर पैर पसारना—हैसियत क्षमता. से अधिक खर्च करना।
70. चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात-सुख क्षणिक ही होता है।
71. चिड़िया उड़ गई फुरै-अभीष्ट व्यक्ति अथवा वस्तु का प्राप्ति से पूर्व ही गायब हो जाना/मृत्यु हो जाना।
72. चिराग तले अँधेरा-अपना दोष स्वयं को दिखाई नहीं देता।
73. चोर-चोर मौसेरे भाई-समाजविरोधी कार्य में लगे हुए व्यक्ति समान होते हैं।
74. चूहे का जाया बिल ही खोदता है-बच्चे में पैतृक गुण आते ही हैं।
75. चोरी का माल मोरी में जाता है—छल की कमाई यों ही समाप्त हो जाती है।
76. छछून्दर के सिर पर चमेली का तेल-कुरूप व्यक्ति का अधिक शृंगार करना।
77. जल में रहकर मगर से बैर-अधिकारी से शत्रुता करना।
78. जहाँ चाह वहाँ राह—इच्छा, शक्ति से ही सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है।
79. जहाँ देखी भरी परात, वहीं गंवाई सारी रात-लोभी व्यक्ति वहीं जाता है, जहाँ कुछ मिलने की आशा होती है।
80. जाके पाँव व फटी बिबाई, सो क्या जाने पीर पराई—जिसने कभी दुःख न देखा हो, वह दूसरे की पीड़ा दुःख. को नहीं समझ सकता।

81. जिसकी लाठी उसकी भैंस-शक्तिशाली की विजय होती है।
82. जिस थाली में खाना उसी में छेद करना-कृतघ्न होना।
83. जैसे कंता घर रहे वैसे रहे विदेश–स्थान परिवर्तन करने पर भी परिस्थिति में अन्तर न होना।
84. जैसा देश वैसा भेष—प्रत्येक स्थान पर वहाँ के निवासियों के अनुसार व्यवहार करना।
85. जैसे नागनाथ वैसे साँपनाथ-दो नीच व्यक्तियों में किसी को अच्छा नहीं कहा जा सकता।
86. जो गरजते हैं बरसते नहीं-अकर्मण्य लोग ही बढ़-चढ़कर डींग मारते हैं। अथवा कर्मनिष्ठ लोग बातें नहीं बनाते। .
87. ढाक के वही तीन पात-कोई निष्कर्ष हल. न निकलना।
88. तबेले की बला बन्दर के सिर—एक के अपराध के लिए दूसरे को दण्डित करना।
89. तीन लोक से मथुरा न्यारी-सबसे अलग, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण।
90. तीन में न तेरह में, मृदंग बजावे डेरा में किसी गिनती में न होने पर भी अपने अधिकार का ढिंढोरा पीटना।
91. तुम डाल-डाल हम पात-पात-प्रतियोगी से अधिक चतुर होना। अथवा प्रतियोगी की प्रत्येक चाल को विफल करने का उपाय ज्ञात होना।
92. तुरत दान महाकल्याण-किसी का देय जितनी जल्दी सम्भव हो, चुका देना चाहिए।
93. तू भी रानी मैं भी रानी, कौन भरेगा पानी—सभी अपने को बड़ा समझेंगे तो काम कौन करेगा।
94. तेली का तेल जले, मशालची का दिल-व्यय कोई करे, दुःख किसी और को हो।
95. तेल देख तेल की धार देख–कार्य को सोच-विचारकर करना और अनुभव प्राप्त करना।
96. थोथा चना बाजे घना-कम गुणी व्यक्ति में अहंकार अधिक होता है।
97. दान की बछिया के दाँत नहीं देखे जाते-मुफ्त की वस्तु का अच्छा-बुरा नहीं देखा जाता।
98. दाल-भात में मूसलचंद-किसी कार्य में व्यर्थ टाँग अड़ाना।
99. दिन दूनी रात चौगुनी-गुणात्मक वृद्धि।
100. दीवार के भी कान होते हैं रहस्य खुल ही जाता है।

101. दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम-दुविधाग्रस्त व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
102. दूर के ढोल सुहावने होते हैं—प्रत्येक वस्तु दूर से अच्छी लगती है।
103. धोबी का कुत्ता घर का न घाट का-लालची व्यक्ति कहीं का नहीं रहता/लालची व्यक्ति लाभ से वंचित रह ही जाता है।
104. न तीन में, न तेरह में महत्त्वहीन होना, किसी काम का न होना।
105. न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी-झगड़े की जड़ काट देना।
106. नाच न जाने/आवै आँगन टेढ़ा-काम न आने पर दूसरों को दोष देना।
107. नाम बड़े, दर्शन छोटे-प्रसिद्धि के अनुरूप निम्न स्तर होना।
108. न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी-न इतने अधिक साधन होंगे और न काम होगा।
109. नीम हकीम खतरा-ए-जान-अप्रशिक्षित चिकित्सक रोगी के लिए जानलेवा होते हैं।
110. नौ नकद न तेरह उधार-नकद का विक्रय कम होने पर भी उधार के अधिक विक्रय से अच्छा है।
111. नौ दिन चले अढ़ाई कोस-धीमी गति से कार्य करना।
112. नौ सौ चूहे खाय बिल्ली हज को चली—जीवनभर पाप करने के बाद बुढ़ापे में धर्मात्मा होने का ढोंग करना।
113. पढ़े फारसी बेचे तेल, यह देखा कुदरत का खेल-भाग्यवश योग्य व्यक्ति द्वारा तुच्छ कार्य करने के लिए विवश होना।
114. बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी-विपत्ति अधिक समय तक नहीं टल सकती।
115. बगल में छोरा, नगर में ढिंढोरा-वाँछित वस्तु की प्राप्ति के लिए अपने आस-पास दृष्टि न डालना।
116. बड़े मियाँ सो बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुभानअल्लाह-छोटे का बड़े से भी अधिक धूर्त होना।
117. बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद-मूर्ख व्यक्ति गुणों के महत्त्व को नहीं समझ सकता।
118. बाप ने मारी मेंढकी, बेटा तीरंदाज-कुल-परम्परा से निम्न कार्य करते चले आने पर भी महानता का दम्भ भरना।
119. बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना-अचानक कार्य सिद्ध हो जाना।
120. भइ गति साँप छछून्दति केरी-दुविधा की स्थिति।

121. भरी जवानी में माँझा ढीला-युवावस्था में पौरुष उत्साह.हीन होना।
122. भागते भूत की लँगोटी भली-न देनेवाले से जो भी मिल जाए, वही ठीक है।
123. भूखे भजन न होय गोपाला-भूखे पेट भक्ति भी नहीं होती।
124. भैंस के आगे बीन बजाना-मूर्ख के आगे गुणों का प्रदर्शन करना व्यर्थ होता है।
125. मन चंगा तो कठौती में गंगा-मन के शुद्ध होने पर तीर्थ की आवश्यकता नहीं होती।
126. मरे को मारे शाहमदार राजा से लेकर धूर्त तक सभी सामर्थ्यवान् कमजोर को ही सताते हैं।
127. मान न मान मैं तेरा मेहमान-जबरदस्ती गले पड़ना।
128. मुँह में राम बगल में छुरी-कपटपूर्ण व्यवहार।
129. मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक-प्रत्येक व्यक्ति अपनी पहुँच के भीतर कार्य करता है।
130. यथा नाम तथा गुण-नाम के अनुरूप गुण।
131. यथा राजा तथा प्रजा-जैसा स्वामी वैसा सेवक।
132. रस्सी जल गई ऐंठ न गई-अहित होने पर भी अकड़ न जाना।
133. राम नाम जपना पराया माल अपना-धर्म का आडम्बर करते हुए दूसरों की सम्पत्ति को हड़पना।
134. लातों के भूत बातों से नहीं मानते-नीच बिना दण्ड के नहीं मानते।
135. लाल गुदड़ी में भी नहीं छिपते—गुणवान् हीन दशा में होने पर भी पहचाना जाता है।
136. शौकीन बुढ़िया चटाई का लहँगा-शौक पूरे करते समय अपनी आर्थिक स्थिति की अनदेखी करना।
137. साँच को आँच नहीं सत्यपक्ष का कोई भी विपत्ति कुछ नहीं बिगाड़ सकती/सत्य की सदैव विजय होती है।
138. साँप निकल गया लकीर पीटते रहे कार्य का अवसर हाथ से निकल जाने पर भी परम्परा का निर्वाह करना।
139. साँप भी मरे और लाठी भी न टूटे-काम भी बन जाए और कोई हानि भी न हो।
140. सावन हरे न भादों सूखे-सदैव एक-सी स्थिति में रहना।

141. सावन के अन्धे को सब जगह हरियाली दिखना-स्वार्थ में अन्धे व्यक्ति को सब जगह स्वार्थ ही दिखता है।
142. सिर मुड़ाते ही ओले पड़ना—कार्य के आरम्भ में ही बाधा उत्पन्न होना।
143. सूरज को दीपक दिखाना-सामर्थ्यवान को चुनौती देना; ज्ञानी व्यक्ति को उपदेश देना।
144. हंसा थे सो उड़ गए, कागा भए दिवान–सज्जनों के पलायन कर जाने पर सत्ता दुष्टों के हाथ में आ जाती है।
145. हमारी बिल्ली हमीं को म्याऊँ-पालक पालनेवाले. के प्रति विद्रोह की भावना रखना।
146. हल्दी/हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए-बिना कुछ प्रयत्न किए कार्य अच्छा होना।
147. हाथ कंगन को आरसी क्या-प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती।
148. हाकिम की अगाड़ी, घोड़े की पिछाड़ी-विपत्ति से बचकर ही निकलना चाहिए।
149. हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और-कपटी व्यक्ति कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं।
150. हाथी के पाँव में सबका पाँव-ओहदेदार व्यक्ति की हाँ में ही सबकी हाँ होती है।
151. होनहार बिरवान के होत चीकने पात-प्रतिभाशाली व्यक्ति के लक्षण आरम्भ से ही दिखने लगते हैं।
152. हाथी निकल गया, दुम रह गई—सभी मुख्य काम हो जाने पर कोई मामूली-सी अड़चन रह जाना।
153. होइहि सोइ जो राम रचि राखा-वही होता है, जो भगवान् ने लिखा होता है।

अलंकार – (Figure of Speech) Alankaar In Hindi

Alankar in Hindi

अलंकार(Figure of Speech) की परिभाषा, भेद और उदाहरण

काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाले साधनों को अलंकार कहते हैं। अलंकार से काव्य में रोचकता, चमत्कार और सुन्दरता उत्पन्न होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अलंकार.को काव्य की आत्मा ठहराया है।

अलंकार–काव्य की शोभा बढ़ानेवाले तत्त्वों को ‘अलंकार’ कहते हैं।

अलंकार के भेद–प्रधान रूप से अलंकार के दो भेद माने जाते हैं–शब्दालंकार तथा अर्थालंकार। इन दोनों भेदों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है

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अलंकार का महत्त्व – Alankar Ka Mahatva

काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।

अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।

अलंकार के भेद

अलंकार के तीन भेद होते है:-

  1. शब्दालंकार – Shabd Alankar
  2. अर्थालंकार – Arthalankar
  3. उभयालंकार – Ubhaya Alankar

(1) शब्दालंकार– “जब कुछ विशेष शब्दों के कारण काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है तो वह ‘शब्दालंकार’ कहलाता है।” यदि इन शब्दों के स्थान पर उनके ही अर्थ को व्यक्त करनेवाला कोई दूसरा शब्द रख दिया जाए तो वह चमत्कार समाप्त हो जाता है।

उदाहरणार्थ-
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाए बौराय जग, या पाए ही बौराय॥

बिहारी यहाँ ‘कनक’ शब्द के कारण जो चमत्कार है, वह पर्यायवाची शब्द रखते ही समाप्त हो जाएगा।

(अ) शब्दालंकार
(1) अनुप्रास

परिभाषा- वर्णों की आवृत्ति को ‘अनुप्रास’ कहते हैं; अर्थात् “जहाँ समान वर्गों की बार–बार आवृत्ति होती है वहाँ ‘अनुप्रास’ अलंकार होता है।” .
उदाहरण–
(क) तरनि–तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
(ख) रघुपति राघव राजा राम। स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरणों के अन्तर्गत प्रथम में ‘त’ तथा द्वितीय में ‘र’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।

अनुप्रास के भेद–अनुप्रास के पाँच प्रकार हैं–

  1. छेकानुप्रास,
  2. वृत्यनुप्रास,
  3. श्रुत्यनुप्रास,
  4. लाटानुप्रास,
  5. अन्त्यानुप्रास।

इन भेदों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है
(1) छेकानुप्रास–जब एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति एक बार होती है, तब ‘छेकानुप्रास’ अलंकार होता है।
उदाहरण–
(क) कहत कत परदेसी की बात।
(ख) पीरी परी देह, छीनी राजत सनेह भीनी। स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरणों में, प्रथम में ‘क’ वर्ण की तथा द्वितीय में ‘प’ वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है, अत: यहाँ ‘छेकानुप्रास’ अलंकार है।

(2) वृत्यनुप्रास–जहाँ एक वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हो, वहाँ ‘वृत्यनुप्रास’ अलंकार होता है। उदाहरण–
(क) तरनि–तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
(ख) रघुपति राघव राजा राम।
(ग) कारी कूर कोकिल कहाँ का बैर काढ़ति री।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरणों में, प्रथम में ‘त’ वर्ण की, द्वितीय में ‘र’ वर्ण की तथा तृतीय उदाहरण में ‘क’ वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हुई है; अतः यहाँ ‘वृत्यनुप्रास’ अलंकार है।

(3) श्रुत्यनुप्रास–जब कण्ठ, तालु, दन्त आदि किसी एक ही स्थान से उच्चरित होनेवाले वर्गों की आवृत्ति होती है, तब वहाँ ‘श्रुत्यनुप्रास’ अलंकार होता है।
उदाहरण–
तुलसीदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में दन्त्य वर्गों त, द, कण्ठ वर्ण र तथा तालु वर्ण न की आवृत्ति हुई है। अतः यहाँ ‘श्रुत्यनुप्रास’ अलंकार है।

(4) लाटानुप्रास–जहाँ शब्द और अर्थ की आवृत्ति हो; अर्थात् जहाँ एकार्थक शब्दों की आवृत्ति तो हो, परन्तु अन्वय करने पर अर्थ भिन्न हो जाए; वहाँ ‘लाटानुप्रास’ अलंकार होता है।
उदाहरण–
पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै?

स्पष्टीकरण–यहाँ एक ही अर्थवाले शब्द की आवृत्ति हो रही है, किन्तु अन्वय के कारण अर्थ बदल रहा है; जैसे–पुत्र यदि सपूत हो तो धन संचय की कोई आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि वह स्वयं ही कमा लेगा और यदि पुत्र कपूत है तो भी धन संचय की आवश्यकता नहीं; क्योंकि वह सारे धन को नष्ट कर देगा।

(5) अन्त्यानुप्रास–जब छन्द के शब्दों के अन्त में समान स्वर या व्यंजन की आवृत्ति हो, वहाँ ‘अन्त्यानुप्रास’ अलंकार होता है।
उदाहरण–
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।
भरे भौन में करतु हैं, नैननु हीं सौं बात॥

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में, छन्द के शब्दों के अन्त में ‘त’ व्यंजन की आवृत्ति हुई है, अतः यहाँ ‘अन्त्यानुप्रास’ अलंकार है।
अन्य उदाहरण–
प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि,

(2) यमक

परिभाषा–’यमक’ का अर्थ है–’युग्म’ या ‘जोड़ा’। इस प्रकार “जहाँ एक शब्द अथवा शब्द–समूह का एक से अधिक बार प्रयोग हो, किन्तु उसका अर्थ प्रत्येक बार भिन्न हो, वहाँ ‘यमक’ अलंकार होता है।”

उदाहरण
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी,
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में ‘ऊँचे घोर मंदर’ के दो भिन्न–भिन्न अर्थ हैं–’महल’ और ‘पर्वत कन्दराएँ’; अतः यहाँ ‘यमक’ अलंकार है।

अन्य उदाहरण
(क) ऊधौ जोग जोग हम नाहीं।
(ख) दानिन के शील, पर दान ………….. सुभाय के।
(ग) थारा पर पारा पारावार यों हलत हैं।
(घ) भुज भुजगेस की ………….. दलन के।
(ङ) पच्छी पर छीने …………. खलन के।

(3) श्लेष

परिभाषा–जिस शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं, उसे ‘श्लिष्ट’ कहते हैं। इस प्रकार “जहाँ किसी शब्द के एक बार प्रयुक्त होने पर एक से अधिक अर्थ होते हों, वहाँ ‘श्लेष’ अलंकार होता है।”

उदाहरण–
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुष चून॥

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में तीसरी बार प्रयुक्त ‘पानी’ शब्द श्लिष्ट है और यहाँ इसके तीन अर्थ हैं–चमक (मोती के पक्ष में), प्रतिष्ठा (मनुष्य के पक्ष में) तथा जल (आटे के पक्ष में); अत: यहाँ ‘श्लेष’ अलंकार है।

अन्य उदाहरण
(क) अजौं तयौना ही रह्यौ ………………. मुकतनु के संग।।
(ख) जोग–जुगति सिखए ……………… काननु सेवत नैन।।
(ग) खेलन सिखए ……………. नरनु सिकार।।

(2) अर्थालंकार–“जहाँ काव्य में अर्थगत चमत्कार होता है, वहाँ ‘अर्थालंकार’ माना जाता है।” इस अलंकार पर आधारित शब्दों के स्थान पर उनका कोई पर्यायवाची रख देने से भी अर्थगत सौन्दर्य में कोई अन्तर नहीं पड़ता।

उदाहरणार्थ–
चरण–कमल बन्दौं हरिराई।

यहाँ पर ‘कमल’ के स्थान पर ‘जलज’ रखने पर भी अर्थगत सौन्दर्य में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।

काव्य में अलंकारों का स्थान–काव्य को सुन्दरतम बनाने के लिए अनेक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। इन उपकरणों में एक अलंकार भी है। जिस प्रकार मानव अपने शरीर को अलंकृत करने के लिए विभिन्न वस्त्राभूषणादि को धारण करके समाज में गौरवान्वित होता है, उसी प्रकार कवि भी कवितारूपी नारी को अलंकारों से अलंकृत करके गौरव प्राप्त करता है। आचार्य दण्डी ने कहा भी है–”काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलङ्कारान् प्रचक्षते।” अर्थात् काव्य के शोभाकार धर्म, अलंकार होते हैं। अलंकारों के बिना कवितारूपी नारी विधवा–सी लगती है। अलंकारों के महत्त्व का कारण यह भी है कि इनके आधार पर भावाभिव्यक्ति में सहायता मिलती है तथा काव्य रोचक और प्रभावशाली बनता है। इससे अर्थ में भी चमत्कार पैदा होता है तथा अर्थ को समझना सुगम हो जाता है।

(ब) अर्थालंकार
(4) उपमा

परिभाषा–’उपमा’ का अर्थ है–सादृश्य, समानता तथा तुल्यता। “जहाँ पर उपमेय की उपमान से किसी समान धर्म के आधार पर समानता या तुलना की जाए, वहाँ ‘उपमा’ अलंकार होता है।”
उपमा अलंकार के अंग–उपमा अलंकार के चार अंग हैं-
(क) उपमेय–जिसकी उपमा दी जाए।
(ख) उपमान–जिससे उपमा दी जाए।
(ग) समान (साधारण) धर्म–उपमेय और उपमान दोनों से समानता रखनेवाले धर्म।
(घ) वाचक शब्द–उपमेय और उपमान की समानता प्रदर्शित करनेवाला सादृश्यवाचक शब्द।

उदाहरण–
मुख मयंक सम मंजु मनोहर।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में ‘मुख’ उपमेय, ‘मयंक’ उपमान, ‘मंजु और मनोहर’ साधारण धर्म तथा ‘सम’ वाचक शब्द है; अत: यहाँ ‘उपमा’ अलंकार का पूर्ण परिपाक हुआ है।

उपमा अलंकार के भेद–उपमा अलंकार के प्राय: चार भेद किए जाते हैं–
(क) पूर्णोपमा,
(ख) लुप्तोपमा,
(ग) रसनोपमा,
(घ) मालोपमा।

इनका संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है
(क) पूर्णोपमा–पूर्णोपमा अलंकार में उपमा के चारों अंग उपमान, उपमेय, साधारण धर्म और वाचक शब्द स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट होते हैं।

उदाहरण–
पीपर पात सरिस मन डोला।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में उपमा के चारों अंग उपमान (पीपर पात), उपमेय (मन), साधारण धर्म (डोला) तथा वाचक शब्द (सम) स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट हैं; अत: यहाँ ‘पूर्णोपमा’ अलंकार है।

(ख) लुप्तोपमा– “उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा वाचक शब्द में से किसी एक या अनेक अंगों के लुप्त होने पर ‘लुप्तोपमा’ अलंकार होता है।” लुप्तोपमा अलंकार में उपमा के तीन अंगों तक के लोप की कल्पना की गई है।

उदाहरण–
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में ‘नयन’ उपमेय, ‘सरोरुह और बारिज’ उपमान तथा ‘नील और अरुण’ साधारण धर्म हैं। ‘समान’ आदिवाचक शब्द का लोप हुआ है; अतः यहाँ ‘लुप्तोपमा’ अलंकार है।

(ग) रसनोपमा–जिस प्रकार एक कड़ी दूसरी कड़ी से क्रमशः जुड़ी रहती है, उसी प्रकार ‘रसनोपमा’ अलंकार में उपमेय–उपमान एक–दूसरे से जुड़े रहते हैं।
उदाहरण–
सगुन ज्ञान सम उद्यम, उद्यम सम फल जान।
फल समान पुनि दान है, दान सरिस सनमान॥

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में ‘उद्यम’, ‘फल’, ‘दान’ और ‘सनमान’ उपमेय अपने उपमानों के साथ शृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किए गए हैं; अतः यहाँ ‘रसनोपमा’ अलंकार है।

(घ) मालोपमा–मालोपमा का तात्पर्य है–माला के रूप में उपमानों की श्रृंखला। “एक ही उपमेय के लिए जब अनेक उपमानों का गुम्फन किया जाता है, तब ‘मालोपमा’ अलंकार होता है।”
उदाहरण–
पछतावे की परछाँही–सी, तुम उदास छाई हो कौन?
दुर्बलता की अंगड़ाई–सी, अपराधी–सी भय से मौन।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में एक उपमेय के लिए अनेक उपमान प्रस्तुत किए गए हैं; अत: यहाँ ‘मालोपमा’ अलंकार है।
अन्य उदाहरण
(क) रेगि चली जस बीर बहूटी।
(ख) नैन चुवहिं जस महवट नीरू।
(ग) सहज सेत …………………… तन जोति।
(घ) नील घन–शावक–से ………………… पास।

(5) रूपक
परिभाषा–“जहाँ उपमेय में उपमान का भेदरहित आरोप हो, वहाँ रूपक अलंकार होता है।” ‘रूपक’ अलंकार में उपमेय और उपमान में कोई भेद नहीं रहता।

उदाहरण
ओ चिंता की पहली रेखा,
अरे विश्व–वन की व्याली।
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण,
प्रथम कम्प–सी मतवाली।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में चिन्ता उपमेय में विश्व–वन की व्याली आदि उपमानों का आरोप किया गया है, अत: यहाँ ‘रूपक’ अलंकार है।

रूपक के भेद–आचार्यों ने रूपक के अनगिनत भेद–उपभेद किए हैं; किन्तु इसके तीन प्रधान भेद इस प्रकार हैं–
(क) सांगरूपक,
(ख) निरंग रूपक,
(ग) परम्परित रूपक।

इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है
(क) सांगरूपक–जहाँ अवयवोंसहित उपमान का आरोप होता है, वहाँ ‘सांगरूपक’ अलंकार होता है।

उदाहरण
रनित भंग–घंटावली, झरति दान मधु–नीर।
मंद–मंद आवत चल्यो, कुंजर कुंज–समीर।।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में समीर में हाथी का, भृग में घण्टे का और मकरन्द में दान (मद–जल) का आरोप किया गया है। इस प्रकार वायु के अवयवों पर हाथी का आरोप होने के कारण यहाँ ‘सांगरूपक’ अलंकार है।

(ख) निरंग रूपक–जहाँ अवयवों से रहित केवल उपमेय पर उपमान का अभेद आरोप होता है, वहाँ ‘निरंग रूपक’ अलंकार होता है।
उदाहरण–
इस हृदय–कमल का घिरना, अलि–अलकों की उलझन में।
आँसू मरन्द का गिरना, मिलना निःश्वास पवन में।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में हृदय (उपमेय) पर कमल (उपमान) का; अलकों (उपमेय) पर अलि (उपमान) का; आँसू (उ. प्रेय) पर मरन्द (उपमान) का तथा नि:श्वास (उपमेय) पर पवन (उपमान) का आरोप किया गया है; अतः यहाँ ‘निरंग रूपक’ अलंकार है।

(ग) परम्परित रूपक–जहाँ उपमेय पर एक आरोप दूसरे आरोप का कारण होता है, वहाँ ‘परम्परित . रूपक’ अलंकार है।

उदाहरण
बाड़व–ज्वाला सोती थी, इस प्रणय–सिन्धु के तल में।
प्यासी मछली–सी आँखें, थीं विकल रूप के जल में।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में आँखों (उपमेय) पर मछली (उपमान) का आरोप, रूप (उपमेय) पर जल (उपमान) के आरोप के कारण किया गया है; अतः यहाँ ‘परम्परित रूपक’ अलंकार है।

अन्य उदाहरण-
(क) सेज नागिनी फिरि फिरि डसी।
(ख) बिरह क आगि कठिन अति मन्दी।
(ग) कमल–नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
(घ) आपुन पौढ़ि अधर सज्जा पर, कर–पल्लव पलुटावति।
(ङ) बिधि कुलाल कीन्हे काँचे घट।
(च) महिमा मृगी कौन सुकृती की खल–बच बिसिखन बाँची?

(6) उत्प्रेक्षा
परिभाषा–“जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाती है, वहाँ ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार होता है।” उत्प्रेक्षा को व्यक्त करने के लिए प्रायः मनु, मनहुँ, मानो, जानेहुँ, जानो आदि वाचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

उदाहरण-
सोहत ओदै पीतु पटु, स्याम सलोने गाता
मनौ नीलमनि–सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात॥

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) पर नीलमणियों के पर्वत (उपमान) की तथा पीत–पट (उपमेय) पर प्रभात की धूप (उपमान) की सम्भावना की गई है; अत: यहाँ ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार है।

उत्प्रेक्षा के भेद–उत्प्रेक्षा के तीन प्रधान भेद हैं–
(क) वस्तूत्प्रेक्षा,
(ख) हेतूत्प्रेक्षा,
(ग) फलोत्प्रेक्षा।

इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-
(क) वस्तूत्प्रेक्षा–वस्तूत्प्रेक्षा में एक वस्तु की दूसरी वस्तु के रूप में सम्भावना की जाती है। (संकेत–उत्प्रेक्षा के प्रसंग में दिया गया उपर्युक्त उदाहरण वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार पर ही आधारित है।) (ख) हेतूत्प्रेक्षा–जहाँ अहेतु में हेतु मानकर सम्भावना की जाती है. वहाँ ‘हेतूत्प्रेक्षा’ अलंकार होता है।

उदाहरण–
मानहुँ बिधि तन–अच्छ छबि, स्वच्छ राखिबै काज।
दृग–पग पौंछन कौं करे, भूषन पायन्दाज॥

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में हेतु ‘आभूषण’ न होने पर भी उसकी पायदान के रूप में उत्प्रेक्षा की गई है, अतः यहाँ ‘हेतूत्प्रेक्षा’ अलंकार है।

(ग) फलोत्प्रेक्षा–जहाँ अफल में फल की सम्भावना का वर्णन हो, वहाँ ‘फलोत्प्रेक्षा’ अलंकार होता है।
उदाहरण–
पुहुप सुगन्ध करहिं एहि आसा।
मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा॥

स्पष्टीकरण–पुष्पों में स्वाभाविक रूप से सुगन्ध होती है, परन्तु यहाँ जायसी ने पुष्पों की सुगन्ध विकीर्ण होने का ‘फल’ बताया है। कवि का तात्पर्य यह है कि पुष्प इसलिए सुगन्ध विकीर्ण करते हैं कि सम्भवत: पद्मावती उन्हें अपनी नासिका से लगा ले। इस प्रकार उपर्युक्त उदाहरण में अफल में फल की सम्भावना की गई है; अत: यहाँ ‘फलोत्प्रेक्षा’ अलंकार है।

(7) भ्रान्तिमान्

परिभाषा–जहाँ समानता के कारण एक वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का भ्रम हो, वहाँ ‘भ्रान्तिमान्’ अलंकार होता है।
उदाहरण–
(क) पांय महावर देन को, नाइन बैठी आय।
फिरि–फिरि जानि महावरी, एड़ी मीड़ति जाय।
x x x
(ख) नाक का मोती अधर की कान्ति से,
बीज दाडिम का समझकर भ्रान्ति से।
देख उसको ही हुआ शुक मौन है,
सोचता है अन्य शुक यह कौन है?

स्पष्टीकरण– उपर्युक्त प्रथम उदाहरण में लाल एड़ी (उपमेय) और महावर (उपमान) में लाल रंग की समानता के कारण नाइन को भ्रम उत्पन्न हो गया है तथा द्वितीय उदाहरण में तोता उर्मिला की नाक के मोती को भ्रमवश अनार का दाना और उसकी नाक को दूसरा तोता समझकर भ्रमित हो जाता है; अत: यहाँ ‘भ्रान्तिमान्’ अलंकार है।

(8) सन्देह

परिभाषा–जहाँ एक वस्तु के सम्बन्ध में अनेक वस्तुओं का सन्देह हो और समानता के कारण अनिश्चय की मनोदशा बनी रहे, वहाँ ‘सन्देह’ अलंकार होता है।
उदाहरण
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीर–रस बीर तरवारि सी उघारी है।
तुलसी सुरेस चाप, कैंधौं दामिनी कलाप,
कैंधों चली मेरु तें कृसानु–सरि भारी है।

स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में लंका–दहन के वर्णन में हनुमानजी की जलती पूँछ को देखकर लंकावासियों को यह निश्चित ज्ञान नहीं हो पाता कि यह हनुमान्जी की जलती हुई पूँछ है या आकाश–मार्ग में अनेक पुच्छल तारे भरे हैं अथवा वीर रसरूपी वीर ने तलवार निकाली है, या यह इन्द्रधनुष है अथवा यह बिजली की तड़क है, या यह सुमेरु पर्वत से अग्नि की सरिता बह चली है; अत: यहाँ ‘सन्देह’ अलंकार है।

प्रमुख अलंकार–युग्मों में अन्तर
(1) यमक और श्लेष _ ‘यमक’ में एक शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त होता है और प्रत्येक स्थान पर उसका अलग अर्थ होता है;

जैसे
नगन जड़ाती थीं वे नगन जड़ाती हैं।

(यहाँ दोनों स्थान पर ‘नगन’ शब्द के अलग–अलग अर्थ हैं–नग (रत्न) और नग्न।) किन्तु ‘श्लेष’ में एक शब्द के एक बार प्रयुक्त होने पर भी अनेक अर्थ होते हैं;

जैसे
को घटि ये वृषभानुजा वे हलधर के वीर।

यहाँ वृषभानुजा के अर्थ हैं–वृषभानु + जा अर्थात् वृषभानु की पुत्री राधा तथा वृषभ + अनुजा अर्थात् वृषभ की बहन गाया हलधर के अर्थ हैं–हल को धारण करनेवाला बलराम तथा बैल।

(2) उपमा और उत्प्रेक्षा

‘उपमा’ में उपमेय की उपमान से समानता बताई जाती है;

जैसे
पीपर पात सरिस मन डोला।

(यहाँ मन की तुलना पीपल के पत्ते से की गई है।) किन्तु ‘उत्प्रेक्षा’ में उपमेय में उपमान की सम्भावना प्रकट की जाती है; जैसे

सोहत ओदै पीतु पटु , स्याम सलोने गात।।
मनौ नीलमनि–सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात॥

(यहाँ पर ‘पीतु पटु’ में प्रभात की धूप की तथा श्रीकृष्ण के सलोने शरीर में नीलमणि के पर्वत की सम्भावना की गई है।)

(3) उपमा और रूपक

‘उपमा’ में उपमेय की उपमान से समानता बताई जाती है;
जैसे–
पीपर पात सरिस मन डोला।

(यहाँ मन की तुलना पीपल के पत्ते से की गई है।)

किन्तु ‘रूपक’ में उपमेय में उपमान का भेदरहित आरोप किया जाता है; जैसे–
चरन–कमल बंदी हरिराई।
(यहाँ पर चरणों पर कमल का भेदरहित आरोप किया गया है।)

(4) सन्देह और भ्रान्तिमान
‘सन्देह’ में उपमेय में उपमान का सन्देह रहता है;

जैसे-
रस्सी है या साँप।

किन्तु ‘भ्रान्तिमान्’ में उपमेय का ज्ञान नहीं रहता और भ्रमवश एक को दूसरा समझ लिया जाता है;

जैसे-
रस्सी नहीं, साँप है।

इसके अतिरिक्त ‘सन्देह’ में निरन्तर सन्देह बना रहता है और निश्चय नहीं हो पाता, किन्तु ‘भ्रान्तिमान्’ में भ्रम निश्चय में बदल जाता है।

(3)उभयालंकार:- जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आश्रित रहकर दोनों को चमत्कृत करते है, वे ‘उभयालंकार’ कहलाते है।

उदाहरण-
‘कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय।’
इस अलंकार में शब्द और अर्थ दोनों है।

उभयालंकार दो प्रकार के होते हैं-

(1) संसृष्टि (Combinationof Figures of Speech)- तिल-तंडुल-न्याय से परस्पर-निरपेक्ष अनेक अलंकारों की स्थिति ‘संसृष्टि’ अलंकार है (एषां तिलतंडुल न्यायेन मिश्रत्वे संसृष्टि:- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व)। जैसे- तिल और तंडुल (चावल) मिलकर भी पृथक् दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार संसृष्टि अलंकार में कई अलंकार मिले रहते हैं, किंतु उनकी पहचान में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। संसृष्टि में कई शब्दालंकार, कई अर्थालंकार अथवा कई शब्दालंकार और अर्थालंकार एक साथ रह सकते हैं।

दो अर्थालंकारों की संसृष्टि का उदाहरण लें-
भूपति भवनु सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न परतर पावा।
मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे।।

प्रथम दो चरणों में प्रतीप अलंकार है तथा बाद के दो चरणों में उत्प्रेक्षा अलंकार। अतः यहाँ प्रतीप और उत्प्रेक्षा की संसृष्टि है।

(2) संकर (Fusion of Figures of Speech)- नीर-क्षीर-न्याय से परस्पर मिश्रित अलंकार ‘संकर’ अलंकार कहलाता है। (क्षीर-नीर न्यायेन तु संकर:- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व)। जैसे- नीर-क्षीर अर्थात पानी और दूध मिलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही संकर अलंकार में कई अलंकार इस प्रकार मिल जाते हैं जिनका पृथक्क़रण संभव नहीं होता।

उदाहरण-
सठ सुधरहिं सत संगति पाई। पारस-परस कुधातु सुहाई। -तुलसीदास

‘पारस-परस’ में अनुप्रास तथा यमक- दोनों अलंकार इस प्रकार मिले हैं कि पृथक करना संभव नहीं है, इसलिए यहाँ ‘संकर’ अलंकार है।

अलंकार सम्बन्धी लघूत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
निम्नांकित काव्यांशों में प्रयुक्त अलंकारों को स्पष्ट कीजिए–
(क) खंडपरस ………………….. बरिबंड।।
(ख) सोभित मंचन …………….. देखन आई।।
(ग) सब छत्रिन आदि ……….. ज्योति जगे।।
(घ) दानिन के शील, ………….. राय के।।
(ङ) प्रथम टंकोर ……………..” ब्रांड को।।
उत्तर–
(क) इन पंक्तियों में उत्प्रेक्षा अलंकार है; क्योंकि यहाँ शिवधनुष में शेषनाग की शोभा की सम्भावना की गई है।
(ख) इन पंक्तियों में ‘स’ और ‘ई’ वर्गों की पुनरावृत्ति के कारण अनुप्रास तथा हाथीदाँत के मंचों में चन्द्रमण्डल की चाँदनी की सम्भावना करने के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है।
(ग) विभिन्न वर्गों की पुनरावृत्ति के कारण अनुप्रास तथा उपमान ज्योति से उपमेय जनक की कान्ति का आधिक्य दिखाने के कारण व्यतिरेक अलंकार है।
(घ) इन पंक्तियों में वर्णों की पुनरावृत्ति के कारण अनुप्रास, राम–लक्ष्मण की तुलना विष्णु, प्रभु, इन्द्र आदि से करने के कारण उपमा तथा राम–लक्ष्मण को शरीरधारी होने पर भी जीवनमुक्त कहने एवं जनक को राजा होते हुए भी योगी कहने में विरोधाभास अलंकार है।
(ङ) इन पंक्तियों में अनुप्रास के अतिरिक्त धनुर्भंग की ध्वनि का बढ़ा–चढ़ाकर वर्णन करने से अतिशयोक्ति अलंकार है।

प्रश्न 2.
‘दिया बढ़ाएँ हूँ रहै, बड़ौ उज्यारौ गेह’ में कौन–सा अलंकार है और क्यों?
उत्तर–
नायिका के शरीर की कान्ति का बढ़ा–चढ़ाकर वर्णन करने के कारण अतिशयोक्ति तथा दीपक के बुझा देने पर भी घर में उजाला होने की बात कहने में विरोधाभास अलंकार है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित उद्धरणों में प्रयुक्त अलंकार बताइए
(क) खग–कुल, कुल–कुल–सा बोल रहा। (ख) कुसुम–वैभव में लता समान। (ग) चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम। (घ) खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघ–बन बीच गुलाबी रंग।
उत्तर-
(क) अनुप्रास और यमक,
(ख) उपमा,
(ग) रूपक,
(घ) उपमा।

अलंकारों से सम्बन्धित बहुविकल्पीय प्रश्न एवं उनके उत्तर उपयुक्त विकल्प द्वारा निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए

1. ‘तरनि–तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।’
उपर्युक्त पंक्ति में कौन–सा अलंकार है
(क) यमक (ख) श्लेष (ग) अनुप्रास (घ) रूपक।
उत्तर :
(ग) अनुप्रास

2. जहाँ एक शब्द अथवा शब्द–समूह का एक से अधिक बार प्रयोग हो, किन्तु उसका अर्थ प्रत्येक
बार भिन्न हो, वहाँ कौन–सा अलंकार होता है
(क) अनुप्रास (ख) श्लेष (ग) यमक (घ) भ्रान्तिमान्।
उत्तर :
(ग) यमक

3. ‘ऊधौ जोग जोग हम नाहीं।’
इस पंक्ति में कौन–सा अलंकार है
(क) अनुप्रास (ख) यमक (ग) श्लेष (घ) उत्प्रेक्षा।
उत्तर :
(ख) यमक

4. जहाँ कोई शब्द एक बार प्रयुक्त हो, किन्तु प्रसंग–भेद से उसके अर्थ एक से अधिक हों, वहाँ अलंकार होता है
(क) श्लेष (ख) रूपक (ग) उत्प्रेक्षा (घ) सन्देह।
उत्तर :
(क) श्लेष

5. जहाँ पर उपमेय की उपमान से किसी समान गुणधर्म के आधार पर समानता या तुलना की जाए, वहाँ अलंकार होता है
(क) यमक (ख) उत्प्रेक्षा (ग) रूपक (घ) उपमा।
उत्तर :
(घ) उपमा।

6. उपमेय में उपमान का भेदरहित आरोप किस अलंकार में होता है अथवा जहाँ उपमेय पर अप्रस्तुत उपमान आरोपित हो, वहाँ अलंकार होता है
(क) उपमा (ख) रूपक (ग) उत्प्रेक्षा (घ) प्रतीप।
उत्तर :
(ख) रूपक

7. उपमेय में उपमान की सम्भावना किस अलंकार में होती है अथवा जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाए, वहाँ अलंकार होता है
(क) सन्देह (ख) उत्प्रेक्षा (ग) भ्रान्तिमान् (घ) अतिशयोक्ति।
उत्तर :
(ख) उत्प्रेक्षा

8. कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु, बीररस बीर तरवारि–सी उधारी है।’
उपर्युक्त पद में कौन–सा अलंकार है
(क) अनन्वय (ख) भ्रान्तिमान् (ग) सन्देह (घ) दृष्टान्त।
उत्तर :
(ग) सन्देह

9. ‘अजौं तरय्यौना ही रह्यौ श्रुति सेवत इक रंग।
नाक बास बेसरि लह्यौ, बसि मुकतनु के संग।’
इस दोहे में अलंकार है
(क) यमक (ख) श्लेष (ग) उत्प्रेक्षा (घ) उपमा।
उत्तर :
(ख) श्लेष

10. ‘अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा–घट ऊषा–नागरी।’ ।
उपर्युक्त पद में अलंकार है
(क) रूपक (ख) श्लेष (ग) उत्प्रेक्षा (घ) उपमा।
उत्तर :
(क) रूपक

शांत रस – Shant Ras – परिभाषा, भेद और उदाहरण – Hindi

Shant Ras – Shant Ras Ki Paribhasha

शान्त रस – Shant Ras अर्थ–तत्त्व–ज्ञान की प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है। जहाँ न दुःख है, न सुख, न द्वेष है, न राग और न कोई इच्छा है, ऐसी मन:स्थिति में उत्पन्न रस को मुनियों ने ‘शान्त रस’ कहा है।

शांत रस के अवयव (उपकरण )

  1. स्थायी भाव–निर्वेद।
  2. आलम्बन विभाव–परमात्मा का चिन्तन एवं संसार की क्षणभंगुरता।
  3. उद्दीपन विभाव–सत्संग, तीर्थस्थलों की यात्रा, शास्त्रों का अनुशीलन आदि।
  4. अनुभाव–पूरे शरीर में रोमांच, पुलक, अश्रु आदि।।
  5. संचारी भाव–धृति, हर्ष, स्मृति, मति, विबोध, निर्वेद आदि।

शांत रस के उदाहरण – Shant Ras ka Udaharan (Example Of Shant Ras In Hindi)

कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्री रघुनाथ–कृपालु–कृपा तें सन्त सुभाव गहौंगो।।
जथालाभ सन्तोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो।
परहित–निरत–निरंतर मन क्रम बचन नेम निबहौंगो॥

– तुलसीदास

स्पष्टीकरण–इस पद में तुलसीदास ने श्री रघुनाथ की कृपा से सन्त–स्वभाव ग्रहण करने की कामना की है। ‘संसार से पूर्ण विरक्ति और निर्वेद’ स्थायी भाव हैं। ‘राम की भक्ति’ आलम्बन है। साधु–सम्पर्क एवं श्री रघुनाथ की कृपा उद्दीपन है। ‘धैर्य, सन्तोष तथा अचिन्ता ‘अनुभाव’ हैं। ‘निर्वेद, हर्ष, स्मृति’ आदि’ संचारी भाव हैं। इस प्रकार यहाँ शान्त रस का पूर्ण परिपाक हुआ है।

Ras in Hindi