Ras (रस)- परिभाषा, भेद और उदाहरण
रस : शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ संस्कृत में ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘रसस्यते असो इति रसाः’ के रूप में की गई है; अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है; परन्तु साहित्य में काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं।
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सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रस के स्वरूप को स्पष्ट किया था। रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है–
“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से उत्पन्न होनेवाला आनन्द ही ‘रस’ है।
काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार रस ‘काव्य की आत्मा ‘ है।
भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा-
रस उत्पत्ति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। उन्होंने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रास रस के आठप्रकारों का वर्णन किया है। रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि कहते हैं कि सब नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है। रस का केंद्र रंगमंच है। भाव रस नहीं, उसका आधार है किंतु भरत ने स्थायी भाव को ही रस माना है।
रस के प्रकार, भेद
- श्रृंगार रस – Shringar Ras
- हास्य रस – Hasya Ras
- रौद्र रस – Raudra Ras
- करुण रस – Karun Ras
- वीर रस – Veer Ras
- अद्भुत रस – Adbhut Ras
- वीभत्स रस – Veebhats Ras
- भयानक रस – Bhayanak Ras
- शांत रस – Shant Ras
- वात्सल्य रस – Vatsalya Ras
- भक्ति रस – Bhakti Ras
रस
प्रश्न–ज्ञान : परीक्षा में रस. अलंकार तथा छन्द में प्रत्येक से सम्बन्धित या तो एक–एक अंक के दो बहुविकल्पीय प्रश्न अथवा लक्षण एवं उदाहरण से सम्बन्धित दो–दो अंक का एक–एक लघूत्तरीय प्रश्न पूछा जाता है। रस, अलंकार व छन्दों के लिए पाठ्यक्रम में क्रमशः 2 + 2 + 2 = 6 अंक निर्धारित हैं।
प्रश्न–रस क्या है? उसके अवयवों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
रस की परिभाषा देते हुए उसके विभिन्न अंगों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर–
‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ संस्कृत में ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘रसस्यते असो इति रसाः’ के रूप में की गई है; अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है; परन्तु साहित्य में काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं।
सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रस के स्वरूप को स्पष्ट किया था। रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है–
“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से उत्पन्न होनेवाला आनन्द ही ‘रस’ है।
काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार रस ‘काव्य की आत्मा ‘ है।
रस के अंग (अवयव)
रस के प्रमुख अंग निम्नलिखित हैं
- स्थायी भाव,
- विभाव,
- अनुभाव,
- संचारी अथवा व्यभिचारी भाव।
रस के इन विभिन्न अंगों का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है
1. रस का स्थायी भाव
अर्थ–स्थायी भाव प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के हृदय में हमेशा विद्यमान रहते हैं। यद्यपि वे सुप्त अवस्था में रहते हैं, तथापि उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर ये रस के रूप में परिणत हो जाते हैं।
स्थायी भाव एवं उनसे सम्बन्धित रस–एक स्थायी भाव का सम्बन्ध एक रस से होता है। इनकी संख्या नौ है, किन्तु कुछ आचार्यों ने इनकी संख्या ग्यारह निर्धारित की है। ये ग्यारह स्थायी भाव और इनसे सम्बन्धित रसों के नाम इस प्रकार हैं
स्थायी भाव–रस
- रति–शृंगार
- हास–हास्य
- शोक–करुण
- क्रोध–रौद्र
- उत्साह–वीर
- भय–भयानक
- आश्चर्य–अद्भुत
- जुगुप्सा, ग्लानि–बीभत्स
- निर्वेद–शान्त
- वत्सलता–वात्सल्य
- देवविषयक रति–भक्ति।
इनमें अन्तिम दो स्थायी भावों (वत्सलता तथा देवविषयक रति) को श्रृंगार के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। प्रत्येक स्थायी भाव का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है
- रति–स्त्री–पुरुष की एक–दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम नामक चित्तवृत्ति को ‘रति’ स्थायी भाव कहते
- हास–रूप, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने से चित्त का विकसित होना ‘हास’ कहलाता है।
- शोक–प्रिय वस्तु (इष्टजन, वैभव आदि) के नाश इत्यादि के कारण उत्पन्न होनेवाली चित्त की व्याकुलता को ‘शोक’ कहते हैं।
- क्रोध–असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान आदि से उत्पन्न मनोविकार को ‘क्रोध’ कहते हैं।
- उत्साह–मन की वह उल्लासपूर्ण वृत्ति, जिसके द्वारा मनुष्य तेजी के साथ किसी कार्य को करने में लग जाता है, ‘उत्साह’ कहलाती है। इसकी अभिव्यक्ति शक्ति, शौर्य एवं धैर्य के प्रदर्शन में होती है।
- भय–हिंसक जन्तुओं के दर्शन, अपराध, भयंकर शब्द, विकृत चेष्टा और रौद्र आकृति द्वारा उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘भय’ स्थायी भाव के रूप में परिभाषित किया जाता है।
- आश्चर्य–अलौकिक वस्तु को देखने, सुनने या स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार ‘आश्चर्य’ कहलाता है।
- जुगुप्सा–किसी अरुचिकर या मन के प्रतिकूल वस्तु को देखने अथवा उसकी कल्पना करने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह ‘जुगुप्सा’ कहलाता है।
- निर्वेद–सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य की उत्पत्ति ‘निर्वेद’ कहलाती है।
- वत्सलता–माता–पिता का सन्तान के प्रति अथवा भाई–बहन का परस्पर सात्त्विक प्रेम ही ‘वत्सलता’ कहलाता है।
- देव–विषयक रति–ईश्वर में परम अनुरक्ति ही ‘देव–विषयक रति’ कहलाती है।
रस–निष्पत्ति में स्थायी भाव का महत्त्व–स्थायी भाव ही परिपक्व होकर रस–दशा को प्राप्त होते हैं; इसलिए रस–निष्पत्ति में स्थायी भाव का सबसे अधिक महत्त्व है। अन्य सभी भाव और कार्य स्थायी भाव की पुष्टि के लिए ही होते हैं।
2. रस का विभाव
अर्थ–जो कारण (व्यक्ति, पदार्थ आदि) दूसरे व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते हैं, उन्हें ‘विभाव’ कहते हैं।
विभाव के भेद–’विभाव’ आश्रय के हृदय में भावों को जाग्रत करते हैं और उन्हें उद्दीप्त भी करते हैं। इस आधार पर विभाव के निम्नलिखित दो भेद हैं
- आलम्बन विभाव–जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण कोई भाव जाग्रत होता है, उस व्यक्ति अथवा वस्तु को उस भाव का ‘आलम्बन विभाव’ कहते हैं।
- उद्दीपन विभाव–स्थायी भावों को उद्दीप्त तथा तीव्र करनेवाला कारण ‘उद्दीपन विभाव’ कहलाता है। आलम्बन की चेष्टा तथा देश–काल आदि को ‘उद्दीपन विभाव’ माना जाता है।
रस–निष्पत्ति में विभाव का महत्त्व–हमारे मन में रहनेवाले स्थायी भावों को जाग्रत करने तथा उद्दीप्त करने का कार्य विभाव द्वारा होता है। जाग्रत तथा उद्दीप्त स्थायी भाव ही रस का रूप प्राप्त करते हैं। इस प्रकार रस–निष्पत्ति में विभाव का अत्यधिक महत्त्व है।
3. रस का अनुभाव
अर्थ–आश्रय की चेष्टाओं अथवा रस की उत्पत्ति को पुष्ट करनेवाले वे भाव, जो विभाव के बाद उत्पन्न होते हैं, ‘अनुभाव’ कहलाते हैं। भावों को सूचना देने के कारण ये भावों के ‘अनु’ अर्थात् पश्चात्वर्ती माने जाते हैं।
अनुभाव के भेद–अनुभावों के मुख्य रूप से निम्नलिखित चार भेद किए गए हैं
- कायिक अनुभाव–प्रायः शरीर की कृत्रिम चेष्टा को ‘कायिक अनुभाव’ कहा जाता है।
- मानसिक अनुभाव–मन में हर्ष–विषाद आदि के उद्वेलन को ‘मानसिक अनुभाव’ कहते हैं।
- आहार्य अनुभाव–मन के भावों के अनुसार अलग–अलग प्रकार की कृत्रिम वेश–रचना करने को ‘आहार्य अनुभाव’ कहते हैं।
- सात्त्विक अनुभाव हेमचन्द्र के अनुसार ‘सत्त्व’ का अर्थ है ‘प्राण’। स्थायी भाव ही प्राण तक पहुँचकर ‘सात्त्विक अनुभाव का रूप धारण कर लेते हैं।
रस–निष्पत्ति में अनुभावों का महत्त्व–स्थायी भाव जाग्रत और उद्दीप्त होकर रस–दशा को प्राप्त होते हैं। अनुभावों के द्वारा इस बात का ज्ञान होता है कि आश्रय के हृदय में रस की निष्पत्ति हो रही है अथवा नहीं। इसके साथ ही अनुभावों का चित्रण काव्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है।
4. रस का संचारी अथवा व्यभिचारी भाव
अर्थ–जो भाव, स्थायी भावों को अधिक पुष्ट करते हैं, उन सहयोगी भावों को ‘संचारी भाव’ कहा जाता है। भरतमुनि ने संचारी भावों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि ये वे भाव हैं, जो रसों में अनेक प्रकार से विचरण करते हैं तथा रसों को पुष्ट कर आस्वादन के योग्य बनाते हैं। जिस प्रकार समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार स्थायी भाव में संचारी भाव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।
संचारी भावों के भेद आचार्यों ने संचारी भावों की संख्या 33 निश्चित की है, जिनके नाम इस प्रकार हैं
- निर्वेद
- आवेग
- दैन्य
- श्रम
- मद
- जड़ता
- उग्रता
- मोह
- विबोध
- स्वप्न
- अपस्मार
- गर्व
- मरण
- आलस्य
- अमर्ष
- निद्रा
- अवहित्था
- उत्सुकता
- उन्माद
- शंका
- स्मृति
- मति
- व्याधि
- सन्त्रास
- लज्जा
- हर्ष
- असूया
- विषाद
- धृति
- चपलता
- ग्लानि
- चिन्ता
- वितर्क।
रस–निष्पत्ति में संचारी भावों का महत्त्व–संचारी भाव स्थायी भाव को पुष्ट करते हैं। वे स्थायी भावों को इस योग्य बनाते हैं कि उनका आस्वादन किया जा सके। यद्यपि वे स्थायी भाव को पुष्ट कर स्वयं समाप्त हो जाते हैं, तथापि ये स्थायी भाव को गति एवं व्यापकता प्रदान करते हैं।