Class 10 Hindi Sparsh Chapter 6 Summary मधुर मधुर मेरे दीपक जल- महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा का जीवन परिचय – Mahadevi Verma Biography in Hindi :
महादेवी वर्मा हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से एक हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 को फ़र्रुख़ाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ।
महादेवी जी की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई। इसके साथ ही उन्हें संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं। 1925 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने तक वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं।
उनकी कविता में प्रेम की पीर और भावों की तीव्रता विद्यमान होने के कारण भाव, भाषा और संगीत की जैसी त्रिवेणी उनके गीतों में प्रवाहित होती है, वैसी त्रिवेणी कहीं और मिल पाना बेहद दुर्लभ है। 1930 में नीहार, 1932 में रश्मि, 1934 में नीरजा, तथा 1936 में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। 27 अप्रैल 1982 को भारतीय साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 2018 में गूगल ने इस दिवस को गूगल डूडल के माध्यम से मनाया।
मधुर मधुर मेरे दीपक जल कविता का सार- Madhur Madhur Mere Deepak Jal Summary :
प्रस्तुत कविता में कवयित्री महादेवी वर्मा जी आस्था रूपी दीपक को जलाकर ईश्वर के मार्ग को रौशन करना चाहती हैं। वह अपने शरीर के कण-कण को जलाकर, अपने अंदर छाये अहंकार को समाप्त करना चाहती हैं। इसके बाद जो प्रकाश फैलेगा, उसमें कवयित्री अपने प्रियतम का मार्ग जरूर देख पायेंगी। वह संसार के दूसरे व्यक्तियों के लिए भी यही कामना करती हैं और उन्हें भक्ति का सही मार्ग दिखाने के लिए उनकी सहायता करना चाहती हैं। इसीलिए उन्होंने कविता में प्रकृति के कई सारे ख़ास उदाहरण भी दिए हैं। उनके अनुसार सच्ची भक्ति के मार्ग में चलने का केवल एक ही रास्ता है – आपसी ईर्ष्या एवं द्वेष का त्याग।
Madhur Madhur Mere Deepak Jal Poem
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन!
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!सारे शीतल कोमल नूतन
माँग रहे तुझसे ज्वाला कण;
विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं
हाय, न जल पाया तुझमें मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह-हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का उर जलता;
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!
Madhur Madhur Mere Deepak Jal Para Wise Explanation
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
मधुर मधुर मेरे दीपक जल भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में महादेवी वर्मा ने ईश्वर के प्रति अपनी अपार श्रद्धा को व्यक्त किया है। वे कहना चाहती हैं कि हमें अपने मन में आस्था रूपी दीपक हमेशा जलाकर रखना चाहिए। इसी मधुर दीपक की रौशनी से वह पथ आलोकित होगा, जिस पर चलकर हम परमात्मा से मिल सकते हैं, उनमें समा सकते हैं।
कवयित्री ईश्वर को अपना प्रियतम कहते हुए, आस्था रूपी दीपक के युगों-युगों तक हर पल जलते रहने की कामना करती हैं, ताकि उन्हें उनके प्रियतम का पथ आसानी से दिख सके। इस प्रकार वे चाहती हैं कि इस राह पर चलकर उनका मिलन प्रियतम से हो जाए।
सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन!
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!
मधुर मधुर मेरे दीपक जल भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री कहती हैं कि जिस प्रकार धूप या अगरबत्ती जल कर सारे वातावरण को सुगन्धित कर देती है, ठीक उसी प्रकार, हमारे द्वारा किये गए सत्कर्मों की कीर्ति भी सारे संसार में ख़ुशबू की तरह फ़ैल जाती है। जिस तरह मोम खुद गलकर अँधेरे को चीरता है और चारों तरफ प्रकाश फैलाता है, उसी तरह हमें अपने शरीर-रूपी मोम को गलाकर, हमारे अंदर व्याप्त अहंकार के अँधेरे को खत्म कर देना चाहिए।
इस तरह जब हम अपने अहंकार को पूरी तरह से समाप्त कर देंगे, तो हमारे चारों तरफ केवल ज्ञान व आस्था का ही प्रकाश होगा। इसी कारणवश कवयित्री इन पंक्तियों में अपने आस्था रूपी दीपक को ख़ुश होकर जलने को कह रही हैं।
सारे शीतल कोमल नूतन
माँग रहे तुझसे ज्वाला कण;
विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं
हाय, न जल पाया तुझमें मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!
मधुर मधुर मेरे दीपक जलभावार्थ : प्रस्तुत्त पंक्तियों में कवयित्री संसार के सभी प्राणियों के बारे में बता रही हैं, जो आस्था की ज्योति को सांसारिक भोग-विलास में ढूंढ रहे हैं। इसी वजह से वे अभी तक प्रभु की भक्ति के मार्ग पर नहीं चल पाए हैं। पूरा संसार किसी पतंगे की तरह पछता रहा है कि वो आस्था की ज्योति में क्यों नहीं जल पाया।
अर्थात उन्होंने अपने अंदर बसे अहंकार का नाश क्यों नहीं किया। अब वे सभी कवयित्री से आस्था की ज्योति का एक कण अर्थात प्रभु-भक्ति के मार्ग का पता जानना चाहते हैं। इसीलिए कवयित्री दूसरों को प्रकाश देने के लिए अपने आस्था रूपी दीपक को तमाम मुश्किलों के बावज़ूद, सिहर-सिहर कर पूरी हिम्मत से जलने को कहती हैं।
जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह-हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का उर जलता;
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!
मधुर मधुर मेरे दीपक जल भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में कवियत्री हमें यह सन्देश देती है कि अगर हम अपने अंदर ईर्ष्या-द्वेष की ज्वाला जलाकर रखेंगे, तो हम कभी किसी को प्रकाश नहीं दे सकते। यानि, ऐसे में ना ही हम ईश्वर की भक्ति कर पाएंगे और ना ही हम दूसरों को उनकी भक्ति का मार्ग दिखा पाएंगे। जैसे आकाश में दिखने वाले असंख्य तारे खुद जलने के बाद भी दूसरों को रौशनी नहीं दे पाते हैं, क्योंकि वे प्रेम रूपी तेल के बिना जल रहे हैं।
जिस प्रकार सागर का जल भाप बनकर ऊपर उठकर बादल बन जाता है। फिर वह बादल ठंडा होकर पानी बरसाता है और धरती को उपजाऊ बनाता है और अपनी बिजली से रात के अंधकार को चीर देता है। उसी प्रकार हमारी आस्था का दीपक हमारे लिए परमात्मा का मार्ग रौशन करेगा और दूसरों को भी भक्ति का मार्ग दिखलायेगा। इसीलिए मानवता के कल्याण की शुभेच्छा से कवियत्री प्रसन्नतापूर्वक अपने आस्था-रूपी दीपक को प्रेम से जलने के लिए कहती है।