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Parvat Pradesh Mein Pavas Class 10 Summary in Hindi – पर्वत प्रदेश में पावस – सुमित्रानंदन पंत

Parvat Pradesh Mein Pavas Class 10 Summary in Hindi

Class 10 Hindi Sparsh Chapter 5 Summary

पर्वत प्रदेश में पावस – सुमित्रानंदन पंत

Parvat Pradesh Mein Pavas- Sumitranandan Pant

सुमित्रानंदन पन्त का जीवन परिचय- sumitranandan pant ka jeevan parichay: सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तरांचल (वर्तमान समय में उत्तराखंड) के अल्मोड़ा जिले के कौसानी गांव में सन 1900 में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में ही हुई। 1918 में वे अपने भाई के साथ काशी आ गए और क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे। वहाँ से माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण कर के वे इलाहाबाद चले गए। 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने महाविद्यालय छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा के साहित्य का अध्ययन करने लगे। उनकी मृत्यु 28 दिसम्बर 1977 को हुई।

उन्होंने सात वर्ष की उम्र से ही कविता लिखना शुरु कर दिया था। 1926-1927 में उनका प्रसिद्ध काव्य-संकलन ‘पल्लव’ प्रकाशित हुआ। सुमित्रानंदन पंत की कुछ अन्य प्रसिद्ध कृतियाँ – ग्रन्थि, गुंजन, ग्राम्या, युगांत, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, चिदंबरा, सत्यकाम आदि हैं।

उन्हें पद्मभूषण(1961), ज्ञानपीठ(1968), साहित्य अकादमी, तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से सम्मानित किया गया। उनकी प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति और सौंदर्य के रमणीय चित्र देखने को मिलते हैं। सटीक शब्दों का चयन करके मन के भावों को व्यक्त करने की अप्रतिम कला के कारण उन्हें शब्द शिल्पी कवि कहा जाता है।

पर्वत प्रदेश में पावस कविता का सार- Parvat Pradesh Mein Pavas Meaning : प्रस्तुत कविता में कवि सुमित्रानंदन पंत जी ने प्रकृति का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। उनकी कविता को पढ़ कर घर की चारदीवारी के अंदर बैठा हुआ व्यक्ति भी किसी पर्वत की चोटी को महसूस कर सकता है। जिसने कभी पर्वत, वन, झरने नहीं देखे, वो पंत जी की भी सुमित्रानंदन इस अद्भुत कविता के ज़रिए प्रकृति के मनमोहक रूप की कल्पना कर सकता है। प्रस्तुत कविता में कवि ने दूर-दराज़ की पर्वत-शृंखलाओं तथा झरनों, वर्षा ऋतु तथा बादलों का वर्णन किया है। जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति प्रकृति से प्यार कर बैठेगा।

पर्वत प्रदेश में पावस – Parvat Pradesh Mein Pavas

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।

मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,

-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!

गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्‍तेजित कर
मोती की लड़ियों सी सुन्‍दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!

गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर
है झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।

उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!

धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।

पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कविता “पर्वत प्रदेश में पावस” की प्रस्तुत पंक्तियों में कवि सुमित्रानंदन पंत जी ने वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए, पर्वतों के ऊपर प्रकृति में पल-पल हो रहे बदलाव के बारे में बताया है। उनके अनुसार, वर्षा ऋतु में पहाड़ों के ऊपर कभी धूप खिल जाती है, तो कभी उन्हीं पहाड़ों को घने काले बादल घेर लेते हैं, अर्थात उन्हें छुपा लेते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि ये सब होने में क्षण भर का समय भी नहीं लगता।

मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,

-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!

पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कविता “पर्वत प्रदेश में पावस” की प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने पर्वत को एक करघनी (कमर में पहने जाने वाले गहना) के रुप में बताया है।  पर्वत पर खिले हुए हज़ारों फूल पर्वत के नेत्र की तरह लग रहे हैं। ठीक पर्वत के नीचे फैला तालाब किसी दर्पण का काम कर रहा है, जिसमें पर्वत अपनी पुष्प रूपी आँखों से अपना विशाल रूप निहार रहा है।

गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्‍तेजित कर
मोती की लड़ियों सी सुन्‍दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!

पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कविता “पर्वत प्रदेश में पावस” की इन पंक्तियों में कवि ने किसी पर्वत से गिरते झरने की सुंदरता का बखान किया है। झरना उसमें उठने वाले झाग के कारण मोतियों की लड़ी की भाँति लग रहा है। उसके गिरने से पैदा होती कल-कल की गूँज मानो ऐसी है, जैसे झरना पर्वत का गुणगान कर रहा हो। गिरते हुए झरने की ध्वनि को सुनकर लेखक की नस-नस में मानो ऊर्जा का संचार होने लगता है।

गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर
है झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।

पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कविता “पर्वत प्रदेश में पावस” की प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ऊँचे पर्वत के ऊपर उगे हुए वृक्षों का वर्णन कर रहा है। जिन्हें देखकर कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह पेड़ पर्वत के हृदय से उगे हैं और सदैव ऊपर उठने की कामना से एकटक ऊपर आकाश की ओर ही देख रहे हैं। उनकी ऊपर उठने की इच्छा कुछ इस प्रकार प्रतीत हो रही है कि वे अपने इस लक्ष्य को पाकर ही रहेंगे, उन्हें ऊपर उठने से कोई रोक नहीं सकता। साथ ही, कवि को ऐसा भी प्रतीत हो रहा है मानो ये पेड़ किसी गहरी चिंता में डूबे हों।

उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!

पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : अचानक बदलते इस मौसम में जब आकाश में बादल छा जाते हैं, तो पर्वत भी ढक जाता है। इसीलिए कवि ने कहा है कि अचानक पर्वत अपने चमकीले पंख फड़फड़ा कर कहीं उड़ गया है। वह अब कहीं नजर नहीं आ रहा। चारों ओर कुछ दिखाई नहीं दे रहा, सिर्फ झरने के गिरने की आवाज़ सुनाई दे रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो आकाश पृथ्वी पर आ गिरा हो।

धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल

पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कविता “पर्वत प्रदेश में पावस” की इन पंक्तियों में कवि कह रहे हैं कि घनघोर बारिश हो रही है। इस मूसलाधार बरसात के कारण वातावरण में चारों ओर कोहरा फ़ैल जाता है। जिसकी वजह से शाल के विशाल पेड़ भी दिखाई नहीं देते। इसीलिए कवि ने कहा है कि शाल के पेड़ डरकर धरती में घुस जाते हैं। इस निरंतर उठते कोहरे को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो तालाब में आग लग गई हो। प्रकृति के विभिन्न रूपों को देखकर कवि को ऐसा लग रहा है, जैसे इंद्र बादलों में घूम-घूम कर अपना खेल खेल रहे हों।

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